गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012


आज की सुबह....
सुनहरी सुबह.....
सिंदूरी पूरब....
चांदी सा पच्छिम.....
डूबते हुए भी चमकते
हुलसते...
मुस्‍कराते चांद की सुबह.....
आसमानी आंचल पर
सिंदूरी रेखाओं के बीच
झिलमिलाते सितारों की टिमटिमाती रौशनियां....
सिंदूरी प्राची
सपनीले धनक के पच्छिम..
और
दो दिशाओं के बीच.....
दो पंछी
एक मैं.....
उम्‍मीदों की सुबह
और गर्वीले चमकीले अंत के साथ....।

अनुजा
02.10.12

पांचवां रास्‍ता....।

मुक्ति की एक सख्‍़त सुबह

पराधीनता की पीड़ा से भरे
कोमल बिछौने से ज्‍यादा सुख़द है...
सुन्‍दर है....

मैं छू पाती हूं
सुनहरी सुबह की रक्तिम लकीरें...
डूबते चमकीले चांद की लुनाई...
कतार दर कतार ओढ़नी सी उड़ती

परिन्‍दों की पांतें....

नए रास्‍तों को तलाशने का उत्‍साह और उजास....
भर पाती हूं लंबी गहरी सांसें
संभाल पाती हूं प्राणों में प्राण वायु....।

क्‍या हुआ....

जो शुरू होगा
चुनौतियों का नया सफ़र....

बांज के नीचे बहते सोते
का ठंडा जल अब होगा
मेरा अंजुरियों में......

लगता होगा उन्‍हें
कि
चुक गया मेरा आसमान...

पर
मेरे हाथ में है.....
चांद का पश्‍मीना....
धूप की चादर....
हवाओं की ओढ़नी......
पेड़ों की सरगोशियां....
पंछियों की छुन छुन की
रेशमी गुनगुनाहट....

मुक्ति का उत्‍सव है......
संघर्ष.....
संघर्ष देता है प्रेरणा.....
चौराहे पर बनाने के लिए कोई एक पांचवा रास्‍ता.....।

अनुजा
02.10.12

बुधवार, 22 अगस्त 2012

हर बार
हारने का शाप
मुझे ही क्‍यों देती है
मां गांधारी.....
मैं
जो हर बार
रचता हूं एक नई गीता
बनाता हूं
एक नया अर्जुन....
करता हूं
पांचजन्‍य का उद्घोष.....
कहता हूं
लड़़ने के लिए स्थितप्रज्ञ हो.....
आज मैं क्‍यों कमज़ोर पड़ता जा रहा हूं.....
क्‍यों खींचते हैं
आज मेरे हाथों को
गोपिकाओं के आंचल.....
क्‍यों बुलाती है
राधा की
रंगीली बांसुरी....
क्‍यों अकुलाती है
यशोदा की ममता....
क्‍यों.....।

अनुजा
26.12.1996

क्‍यों.....

क्‍यों चाहते हो
कि
सरक जाए
मेरे
मोहासक्‍त हाथ से
कर्त्‍तव्‍य का गांडीव.....
क्‍यों चाहते होकि

रचना हो एक बार फिर
किसी गीता की....
जीवन के इस महाभारत में......
अनुजा
26.02.96


मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

चल हंसा......

जब उनके पास नहीं था कोई रूप रंग....
कोई आकार....
कोई चेहरा....
कोई पहचान....
उन्‍होंने चुना एक माली को.....
एक कुम्‍हार को.....
एक दर्जी़ को...
एक मिस्‍त्री को.....
एक कामगार को....
एक बुद्धिजीवी को.....
एक मां को....
एक औरत को....
एक टीचर को.....
एक निर्माता को....
रोका एक राही को.....
स्‍वागत किया सबका....

आज...
जब तैयार हो गया है उनका घर....
हो चुका है रंग रोगन....
आ चुका है दुनिया की नज़र में....
वो नहीं चाहते
कि वहां रूके एक पल भी वो....
उन्‍होंने तय कर दी हैं....
उनकी दिशाएं...
उनकी सीमाएं....
उनकी जि़म्‍मेदारियां....
उनकी भूमिकाएं....
उनका लक्ष्‍य.....

खींच दी है
एक लक्ष्‍मणरेखा....
ख़त्‍म करने को तैयार हैं उनका अस्तित्‍व....
ताबूत में बस आखिरी कील जड़नी बाक़ी है....

न जाने वो पल कौन सा होगा.....
किस झोंके के साथ आएगा.....
कहां ले जाएगा.....

कुछ भी नहीं पता....
बस दूर तक फैले सन्‍नाटे में....
उड़ती हुई रेत में....
फैली...बिखरी..धंसी....उभरी...हुई चट्टानों में...

सूखते पत्‍तों के कांपते हुए होठों को
पैरों से चूमते हुए.....
रौंदते हुए रेत के ढेर को.....

जाना है कहीं दूर....
किसी दिशा में....
तैयार है.... सब कुछ....

चल हंसा....
उस देस, जहां.....
उड़ते हों बादल....

खिलती हो धूप....
बहते हों झर झर झरने....

नाचती हो जीवन की उमंग....
बचपन का भोलापन.....
चल हंसा....!

-अनुजा
10.04.12

बुधवार, 11 जनवरी 2012


जब
खुद को भगतसिंह
का अनुयायी मानने वाले

सोने लगें
पलकों की छांव में....
छुपने लगें
ज़ुल्फों के घेरे में....
ढूंढने लगें
मोहब्बत की गोद.....

तब
सही ही है भगत
तुम्हें सिर्फ एक
याद
करार देना

और
तुम्हें भूल जाना.....
याद करना
23 मार्च के .......!

अनुजा
Friday, April 1, 2011

संबंध...

संबंधों को
तोड् देते हैं
कितनी निर्ममता से.......
या
बनने ही नहीं देते......
या
बनते हुए संबंध को ठहरा देते हैं
कुछ संकोच..
कोई हिचक..
कुछ झूठ..
कुछ अभिमान..
कुछ अहं..
कुछ आक्रोश..
कुछ पूर्वाग्रह..
कुछ दुख..
कुछ भय..
कुछ निराशाएं..
कुछ अविश्‍वास..
कुछ आहत मन..
और
बस एक पहल का इंतजार
ही होती है
इन संबंधों की परिभाषा
और नियति........!

अनुजा

भारत माता की जय

कि

अब भी

इस रात जब क्रिकेट वर्ल्‍ड कप की जीत में दीवाली मनाई जा रही है

न जाने कितने कोनों में कितने बच्‍चे भूखे ही सो रहे हैं

कितनी औरतें अपनी अस्‍मत का सौदा कर रही हैं

न जाने कितने बूढ़े पानी के लिए खुदकुशी कर रहे है

कितनी बेटियों का बचपन ब्‍याहा जा रहा है

कितने मजदूर इस चिंता में जाग रहे हैं

कि

कल काम मिलेगा या नहीं

हम वर्ल्‍ड कप की ,खुशियों की इन्‍तहा देख रहे हैं

सड़कें सन्‍नाटी रही हैं

दफ्तरों में काम काज ठप है

दुकानें खामोश हैं

पटाखे चिल्‍ला रहे हैं

क्‍लाइमेट चेंज पर हंस रहे हैं

हम वर्ल्‍ड कप को इंज्‍वॉय कर रहे हैं

आप

मुझे सैडिस्‍ट कह सकते हैं

......!

अनुजा

सबसे ज्यादा पाई जाती हैं औरतें कविता में...

पर वो औरतों की कविता नहीं होतीं
उन कविताओं का विषय औरतें नहीं
होता है प्रेम .....
प्रेम भी औरतों का नहीं होता
होता है औरतों से प्रेम...,
सभी औरतों से प्रेम भी नहीं होता.
जब तक न हो उनमे एक ख़ास किस्म का औरतपन...,
हाँ ज़रूरी है इस औरतपन को देखने के लिए मर्दाना नज़र का होना..
इसीलिए तो मर्द लिखते हैं औरतों की कवितायेँ..
अनुपस्थिति हैं औरतों की कविताओं में औरतें..

तो औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
क्यूँ नहीं इनकार कर देतीं वो मर्दों की कविता में आने से ,,
ओह् ! तो.. कविताओं में क़ैद हैं औरतें..
बाहर तो उनकी महज़ छायाएं हैं ...
और छायाओं से लिपटे पड़े हैं..
टूटे हुए शीशे ...गोरेपन की क्रीम..
माहवारी के बाद फेंके गए संक्रमित कपड़ों के पैड ..
गर्भ निरोधक गोलियां..सुडौल वक्ष के विज्ञापन..
और अनचाहे बाल हटाने के जादुई ब्लेड........

खूबसूरत कविताओं की दुनिया में औरतें कहाँ हैं..
या इतना ही बता दो..
जो औरतें खूबसूरत नहीं..वो कहाँ हैं..
औरतों की खूबसूरत दुनिया कहाँ है
औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
सवाल ये भी है कि...''औरतें कहाँ हैं.''

तुम्हारी कविताओं में इतनी खुश्बू है..
कि बदबू आती है दोस्त...
कविता में बदबू होती तो कविता से बदबू नहीं आती..
कविता में बदबू को..
कविता में साझे प्रेम को...
कविता में जिंदगी को..
कविता में औरतों को आने दो...
औरतों की कविता को आने दो.......

दीपक कबीर



नए बरस का पहला दिन.....

तेज बारिश..
छत से अविरल बहती पानी की धार...
बिजली से आहत हो
बंद हुई ब्रॉडकास्टिंग को फिर से शुरू करने की जद्दोजहद
घर का हुलिया दुरूस्‍त करते हुए
झूमती हवा की ताल पर
लहराती डालियों से आंखें चार करते हुए गुज़रा सारा दिन....
टिप् टिप् कर टपकते शुभकामना संदेश
पंख होते तो उड़ आती रे की धुन पर
शुभकामनाओं के ढेर पर बैठे...
बिजली पर झुंझलाते और
मस्‍त आसमान से साफ होने की गुज़‍ारिश के बीच
बीता साल का यह पहला खूबसूरत दिन....

मौका मिलते ही आए कहने के लिए......
वही हर बार का एक रटा रटाया संदेश
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ.......

नववर्ष मंगलमय हो
कल्‍याण, स्‍वास्‍थ्‍य और समृद्धि से भरपूर हो....
ठंड से इस बरस न मरे कोई
प्रकृति इस बार रहे मेहरबान
दु:ख और सुख में हो संतुलन...
भर जाएं सब ज़ख्‍़म जो चुभते हों.....

नियति की बदल जाए ताल...

तुम्‍हारे लिए
अंजुरी में भर जाए धूप और चांदनी...

भरपूर...

इस बरस....
2012 में .....