शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना अच्छा होता है


कितना अच्‍छा होता है

एक दूसरे को जाने बगैर
पास-पास होना 
और उस संगीत को सुनना 
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।

शब्‍दों की खोज शुरू होते ही 
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं ,
और उपके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से 
मछली की तरह फिसल जाते हैं।


हर जानकारी में बहुत गहरे
उब का एक पतला धागा छिपा होता है, 
कुछ भी ठीक से जान लेना 
ख़ुद से दुश्‍मनी ठान लेना है ।


कितना अच्‍छा होता है 
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर 
दूसरे का पा लेना।



सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना



मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां.....

हमसफ़र होता कोई तो बांट लेते दूरियां
राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां।।

मुस्‍कुराते ख्‍़वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी कि़स्‍मत की नामंजूरियां।।

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवां
जि़न्‍दगी का नाम है लाचारियां मजबूरियां।।

फिर किसी ने आज छेड़ा जि़क्र-ए-मंजि़ल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गयीं हैं दूरियां।।


http://www.youtube.com/watch?v=AYP4CHVRAXE


मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

उम्‍मीद का छोर और वसंत____

छोड़ना मत तुम उम्‍मीद...
एक दिन
बादल का एक छोर पकड़कर
वासन्‍ती फूलों की महक में लिपट...
धरती गायेगी
वसन्‍त का गीत....

सब दु:ख...
सारे भय...
सब आतंक...
सारी असफलताएं ......
सारा आक्रोश

पिघलकर बह जाएगा
सूरज के सोने के साथ....

ओढ़ लेंगी सब दिशाएं
गुलाबी बादलों की चूनर....
मौसम गायेगा
रंग के गीत....

और
तुम्‍हारे सर पर होगा
एक सायबान....
पिरियाई सरसों
के बिछौने पर
आसमानी दुपट्टे
को ओढ़
सो जाना तुम अपने
प्रेम की किताब को
रखकर सिरहाने....

कोई पंछी छेड़ देगा
सुरीली लोरी की तान....
बर्फीले पहाड़ों से
आएगी एक परी....
जादू की एक छड़ी के साथ....
श्रम सीकरों का ताप सोख
आंखों में भर देगी कोई एक
मधुर स्‍वप्‍न....

हारना मत तुम....
चलते रहना....
थाम कर उम्‍मीद का छोर....

अनुजा
04.02.14


गुरुवार, 16 जनवरी 2014

स्‍वामी का अधिकार नहीं है तुम्‍हें.....

मेरी इस अस्मिता से सहम क्यों जाते हो तुम
मानव होने के मेरे उद्घोष को
पचा क्यों नहीं पाते तुम
तुम्हें पता है कि
इसके बाद वस्तु नहीं रह जाउंगी मैं
जिसे तुम इस्तेमाल करो और फेंक दो
तुम्हें पता है कि तकिया भर नहीं रह जाउंगी मैं
जिसकी छाती में मुहं छिपाकर रो लो तुम
और फिर लतिया दो
तुम्हें पता है फूल नहीं रह जाउंगी फिर मैं
कि मुझे रसशून्य करके हो जाओ रससिक्‍त तुम
और मुझे रौंद दो
तुम्हें पता है कि तुम्हारे प्रदीप्त अहं की तुष्टि का सामान भर नहीं
रह जाउंगी मैं
जिसके आंसुओं से प्रज्ज्वलित हो सके तुम्हारा दर्प।

तुम भूल गए कि मैं जननी हूं
तुम्हें  मैंने ही जन्म दिया है
मुझे अधिकार का दान देने वाले तुम कौन
याचक नहीं हैं मेरे अधिकार
असिमता सम्मान और उपस्थिति का बोध हैं
तुमने छला मुझे
मेरे ही खिलाफ मेरे लिए तुमने
लक्ष्मण रेखाएं खींचीं
और मुझे जिन्दा झोंक दिया दहकती अग्नि में
अपनी शुचिता और न्याय के नाम पर
तुमने मुझे अशुच और अपराधी साबित किया
तुमने किताबें रची
नियम बनाए
मेरी पहचान को मिटाकर अपनी सत्ता बनायी
और आज तुम
मेरे सृष्टा और नियन्ता होने के गर्व तले
मेरे होने को भी
खत्म करने पर आमादा हो.....

नहीं ये नहीं हो सकता
तुम सहचर हो सकते हो
मित्र हो सकते हो
साथी हो सकते हो
सखा हो सकते हो
आसक्‍त प्रणयी हो सकते हो
आहत प्रेमी हो सकते हो
स्वामी का अधिकार नहीं है तुम्हें...।

- अनुजा
  2007

बुधवार, 15 जनवरी 2014

इंसान हूं मैं....

मैं क्या हूं.....

सूरज की एक किरन
फूल की एक पंखुड़ी
ओस की एक बूंद
हवा में उड़ता कोई आवारा पत्ता
आंधी का एक झोंका
आग की एक लपट
या
जीवन की एक धड़कन
मुझे आज कुछ भी नहीं पता अपना
अपने आप से अनजान मैं
अपनी ही तलाश में हूं इस सफर में

मैं अग्निशिखा अमृता
अब किसी अग्निपरीक्षा के लिए नहीं हूं
मैं न काली हूं
न दुर्गा
न गौरी
न भैरवी
न मैं याज्ञसेनी हूं
न गार्गी मैत्रेयी
न कात्यायनी
मैं इंसान हूं।

-अनुजा
2007