मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

जब राजेन्‍द्र यादव नहीं होंगे तो....पुरानी बात...अब राजेन्‍द्र यादव नहीं हैं तो....

कुछ बरस पहले......शायद 2005-06 की बात है.... उन दिनों मैं दिल्‍ली में थी, कथाकार विजय के साथ ऐसे ही चर्चा चल रही थी। चर्चा में कहीं राजेन्‍द्र यादव की चर्चा भी आयी...'सारा आकाश' से लेकर 'हासिल' तक की उनकी यात्रा, गाहे ब गाहे उनकी बेलाग टिप्‍पणियां, उनकी मान्‍यताएं, साहित्‍य की राजनीति और साहित्‍य के मठाधीशों पर बात बढ़ती ही गयी। काफी जगहों पर उनकी असहमति थी राजेन्‍द्र जी से...। लखनऊ में कथाक्रम के कई आयोजनों के दौरान उनसे मिलने का मौका भी मिला पर  बातचीत कभी संभव नहीं हुई। ये वो शख्‍स था जो हर जगह मौजूद रहता था....बिना वहां उपस्थित हुए....। ये वो शख्‍़स था जिसकी क़लम की हिमाक़तें हंस की प्रतियों को अग्नि दाह पर मजबूर करती थीं। ये वो शख्‍़स था जो सबसे बुरा था मगर सबसे आत्‍मीय....ये शख्‍़स जब नहीं होगा तो क्‍या होगा....बस इस एक सवाल से इस लेख की शुरूआत हुई थी...पूरा नहीं हो पाया था क्‍योंकि कभी ये कल्‍पना 'तो' के आगे नहीं बढ़ सकी......। लेख को लिखकर विजय जी को दिखाया....वो हंसे और बोले-हंस में भेज दो, राजेन्‍द्र जी खूब हंसेंगे और छाप भी देंगे...। पर कुछ आलस्‍य, कुछ बंजारे जीवन के यथार्थ संघर्ष और कुछ इसे कभी पूरा कर पाने की इच्‍छा में यह अधूरा लेख पड़ा ही रह गया और आज राजेन्‍द्र जी ने अपनी यात्रा ही समाप्‍त कर दी.....। इस बोलते चुप्‍पे उपस्थित अनुपस्थित शख्‍़स की कमी हमेशा रहेगी साहित्‍य में....

यहां प्रस्‍तुत है वही अधूरा पन्‍ना....अपनी खदबदाती भावनाओं और विचारों के साथ.....

'जब राजेन्द्र यादव नहीं होंगे तो क्या होगा? साहित्य जगत में सन्नाटा हो जाएगा।
किसी हद तक तो यह सही ही है क्योंकि राजेन्द्र यादव ही वो व्यकित हैं  जो निरंतर विवादों को खड़ा करते रहते हैं और हमें सोचने को मजबूर करते रहते हैं।

मैं राजेन्द्र जी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती। उनके संपादक, लेखक, वक्ता और साहित्यकार के तौर पर ही मेरा परिचय होता रहा है। विवादों को खड़ा कर उनके प्रहार झेलने वाले इस शख़्स के बिना साहित्य संसार कितना सूना होगा इसकी कल्पना मुझे आज सिहरा रही है। हालांकि हमारे एक मित्र कहते हैं -'ठीक है जाने दीजिए इन बूढ़े ठूढों को, ये जाएंगे नहीं तो जगह कैसे खाली होगी और हम कहां बैठेंगे ? पर राजेन्द्र यादव के बिना इस साहित्य की दुनिया की कल्पना मुझे सिहरा देती है। दरअसल 70 की उम्र में तो साहित्यकार जवान होता है और ऐसी भरी जवानी में उसे सब कुछ छोड़कर जाना पड़े तो क्या होगा उसका और पीछे वालों का।
काशी का अस्सी के अंश हों या रामशरण जोशी की आत्मकथा! 'मुड़ मुड़ के देखता हूं के बहाने उनकी अपनी पड़ताल हो या उस पर 'प्रति जीवन के प्रहार  अथवा 'तोते की जान में उनकी खूबियों का बखान! राजेन्द्र यादव भीतर से बाहर तक लोगों की विचार चेतना को आलोड़ित करते रहते हैं। आलोचना हो या प्रशंसा.....ताड़ना हो या प्रताड़ना....या उनके लेखन साक्षात्कारों वक्तव्यों को केंद्र बना कर गढ़ी गर्इ गालियां....सबको खुले हृदय व एक प्रफुल्ल हंसी के साथ स्वीकार लेने वाला यह अध्येता पिता... गुरू या साहित्य का मठाधीश या माफिया, जो भी हो...जो भी कहे कोर्इ ....बांहें फैलाए अपने उदार आंगन में सबको सहर्ष स्वीकार करता है।

लखनऊ में आयोजित कथाक्रम हो या दिल्ली की कोर्इ गोष्‍ठी, मुददे या विषय को अगर सिरे से भटकाना हो तो राजेन्द्र यादव को याद कर लीजिए... लेकिन हां अगर किसी बात पर बेबाक बहस करनी हो और वह दलित या स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ कोर्इ मुददा हो तो भी आप उन्हें बेझिझक याद कर सकते हैं। उन दिनों मैं लखनऊ में थी। कथाक्रम के दौरान उन्हें हमेशा दूर से खामोश खड़े होकर देखा....बहुत बार चाहा कि उनका साक्षात्कार करूं... उनसे बात करूं....किंतु हर बार यह प्रखर पुरुष (समस्त उक्त विशेषणों के साथ ) मेरी खामोशी के कुहासे के सामने से चुपचाप निकल गया, दूसरों से बातें करते हुए.... कभी भी मेरे भीतर न यह साहस  उपजा न इतनी तीव्र इच्छा हुर्इ कि जो अन्तत: उनसे मुलाकात को बाध्य करती। यह चाहना कहीं न कहीं स्त्री मुक्ति के प्रति उनके विचारों के कारण शायद मुझे कहीं रोकती रही। हां, उनके विषय में मन्नू जी से खूब खूब चर्चा हुर्इ। उन्होंने हमेशा कहा कि जाओ, राजेन्द्र से जरूर मिलो वे नए लोगों को बहुत प्रोत्साहित करते हैं।पर क्या था.....जिसने मुझे हमेशा उनके पास जाने से मुझे रोका और क्या था जिसने आज मुझे यह लिखने को विवश किया ।
 मीडिया में और सक्रिय साहित्य चर्चाओं का एक अंग बनने के हमारे वे शुरूआती दिन थे। राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह दो बेहद बदनाम, साहित्य के माफिया गुटों की तरह हमसे परिचित हुए। उनकी विद्वत्‍ता  पर चर्चा कम सुनी, सुना तो यह सुना कि वे कितने घुटे हुए हैं। यह सारी बातें कभी रचनात्मक और सकारात्मक धरातल पर सुनी ही नहीं । कभी सोचा ही नहीं कि कि किसी मंच से जिसे दिन में गाली दी जाती है शाम को उसी के साथ दारू पार्टी चलती है। नए नए पंछी हम, हमें पता ही नहीं था कि ऐसा भी होता है। इस दुनिया में कोर्इ पूरी तरह शत्रु या मित्र नहीं होता। गाली के आवरण के पीछे एक बड़ी गहरी यारी होती है। वैचारिक मतभेद और दुश्‍मनी का अंतर यहां ही समझ में आया। राजेन्द्र यादव को लेकर भी कुछ ऐसी ही मान्यताएं प्रचलित कर दी गयीं थीं। सब तरफ से बरसात ही होती थी उन पर।

'सारा आकाश से ' हासिल तक की उनकी साहित्य यात्रा ने मुझे हतप्रभ किया, वहीं 'होना सोना एक दुश्‍मन के साथ और 'मुड़ मुड़ के देखता हूं के कारण उन्हें लेकर मेरे भीतर सदैव एक द्वन्द्व  ही जीता रहा। मैंने कभी उनसे बात नहीं की परन्तु उनके बारे में चर्चा की। वैचारिक स्तर पर कहीं गहरे बहुत असहमत होते हुए भी मैं उनसे कर्इ स्तरों पर पूर्णत: सहमत रही।

आज जब विजय जी से बात करते हुए मैंने उनसे विरोध को मुखरित किया तो उनके इस प्रश्‍न में मुझे भीतर से हिला दिया- जब राजेन्‍द्र जी नहीं होंगे तो साहित्‍य संसार कैसा होगा अनुजा....सन्‍नाटा हो जाएगा साहित्‍य में...।  वैसे लिख तो बहुत से लोग रहे हैं परन्तु साहित्य में हलचल कौन करता है। हंस के स्तर को लेकर गालियां देनी हों, उनकी प्रशंसा करनी हो या हंस की प्रतियां जलानी हो......राजेन्द्र यादव हमेशा दूसरों में ऊर्जा भरते हैं विरोध की। और विरोध की इस चिंगारी को इस कठिन समय में जगाए और जिलाए रखना बहुत ज़रूरी है।

स्त्री प्रश्‍न को लेकर अनेक बिन्दुओं पर मेरा उनसे विरोध रहा है और मौके बे मौके इस बात को मैंने विभिन्‍न जगहों पर रखा भी....इतना कि कुछ लोग मुझसे नाराज़ हो गए और कुछ जो शुभ चिंतक थे चिंतित हो गए....मुझे समझाया  कि मैं ये क्‍या कर रही हूं...मुझे साहित्‍य में अपनी जगह बनानी है या नहीं...मैं राजेन्‍द्र यादव के खि़लाफ़ लिख रही हूं..... लेकिन राजेन्‍द्र जी की क़लम की धार थी जो असहमतियां पैदा करती थी और मेरी क़लम को धार देती थी विरोध की.... पर विरोधी भी हमारे लिए इतना प्रिय, अपना और ज़रूरी होता है यह एहसास मुझे आज सुबह ही हुआ। राजेन्द्र यादव की सक्रियता, उनका दखल, उनकी जिंदादिली है जो शायद उन्हें सबसे बांधती है और यह उनका व्यकितत्व ही है जो विरोधियों को भी इतना प्रिय होता है।
 
और अब आज.....

और आज की सुबह...सुबह-सुबह एक उदासी का झोंका लेकर आयी....फेस बुक से पता चला- साहित्‍य संसार सूना हो गया। राजेन्‍द्र यादव चले गए......। हमेशा की तरह उनके विरोधी और पक्षधर...आज सब फिर एक जगह पर जुटेंगे...उन्‍हें अंतिम विदाई देने के लिए....उनके मौन की टंकार को सुनने के लिए.....उनसे असहमत होते हुए भी सहमत होने के लिए.....।

एक धक्‍का सा लगा है....एक बार मिल न पाने की मजबूरी या असमर्थता, जो भी कहें आज बेहद परेशान कर रही है। ये कभी अनुमान नहीं था कि जिस एक शख्‍़स से मिलने से खुद मेरे भीतर कोई रोकता था मुझे और जिससे मिलने की इतनी प्रबल इच्‍छा थी, वह इस तरह चला जाएगा कि कभी अपने आप से जीत उससे मिल पाने की उम्‍मीद भी ख़त्‍म हो जाएगी....।

आज जब वह चले गए हैं .....‍उन पर बहसों, विचार गोष्ठियों, चर्चाओं का सिलसिला शुरू हो जाएगा....। इस सन्‍नाटे को तोड़ने की कोशिश होगी...कई लोग और निकलकर आएंगे और उनकी तरह दिखने की कोशिश करेंगे पर अपनी संपूर्ण राजनैतिक, सामाजिक, सांस्‍कृतिक वैचारिक चेतना के साथ राजेन्‍द्र यादव अकेले ही रहेंगे....। फेस बुक पर अपडेट जारी हैं , प्रतिक्रियाएं, संवेदनाएं श्रद्धांजलियां जारी हैं, साहित्‍य समूहों में भी उनकी अंतिम विदा के पहले और बाद शुरू हो जाएगा....। हाईजैक करने के ख़तरे और ख़तरों पर चेतावनियां
शुरू हो गयी हैं और चलती रहेंगी...पर हंस में उस वैचारिक आलोड़न का दौर क्‍या अब भी जारी रहेगा जो उसकी प्रतियां जलाने पर मजबूर करता था....

उनसे बहुत बातों पर असहमति थी मगर फिर भी उनके सिर्फ उनके संपादकीय के लिए....उनके लिखे को पढ़ उनसे नाराज़ होने के लिए हम हंस ख़रीदते थे.....बेहद कंगाली के दिनों में भी...और उन्‍हें संजो कर भी रखते थे कि इनमें बहुत कुछ है जो अपने जैसा है....।


क्‍या टिप्‍पणियों वक्‍तव्‍यों का वो दौर भी जारी रह सकेगा जो श्रोताओं और पाठकों को तिलमिला देता था....। कहते हैं जि़न्‍दगी कहीं ख़त्‍म नहीं होगी...दुनिया कहीं ख़त्‍म नहीं होती मगर हां कुछ जगहें हमेशा शून्‍य रह जाती हैं.....आज...उनके जाने के बाद विजय जी की ये बात सच लग रही है कि साहित्‍य में एक बड़ा शून्‍य आ जाएगा....वो आ गया सा लगता है.... और ये तो शुरूआत है।

उनकी स्‍मृति को प्रणाम.....।

अनुजा

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

तलाश.....

सूखे पत्तों की खरकन के बीच
तलाश
एक कोंपल की...
एक चिनगी की...
एक नर्म कली की...
एक बूंद ओस की...
चुटकी भर आस की...
एक गुलमोहरी सपने की...
अंजुरी भर चांदनी की...
कुछ ज़्यादा तो नहीं ना !
जीवन सा
सपने सा
या फिर
टूटती उम्मीद सा...!

अनुजा
08.07.07

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

पांचवा रास्‍ता..

समय बदलता है तो
बदल जाता है बहुत कुछ.....

ख़्याल उगते हैं तो
रच जाती है एक दुनिया.....।

यादों पर जमी हुई धूल की परतें साफ होने लगी हैं...
गिरहें खुलने लगी हैं......

नज़र आने लगी है एक पगडंडी सी
जो ले जाएगी उस मोड़ तक.....

जहां से शुरू होगा
कोई एक पांचवां रास्ता......।

अनुजा
02.09.13

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

हथेलियों में....


जब कुछ नहीं होता
तो बहुत कुछ होता है
हथेलियों में.....

ख्‍वाहिशें....
सपने....
उम्‍मीदें....
आसरे....
यक़ीन...                   

मेरा-तुम्‍हारा....

यादें....
तुम और मैं....

एक कप चाय
के बीच
बहती गुफ्तगुएं.....
लंबी यात्राएं.....

बादलों के बीच खोते रास्‍ते.....
एक रूमानी निश्चिन्‍तता.....

हवाओं के झोंके....
सूखे पत्‍तों से भरे रास्‍ते...

नीला शामियाना....
सुर्ख़ पीला सफेद बल्‍ब
उजियाली सुबहें
सर्द सफेद रातें....
सन्‍नाटे जंगल....
पैरों की थाप....

टहनी पर अटकी कलियां
दानों पर गिरती चिडि़या....

एक खामोशी.....
कुल आवाज़ें.....

जि़न्‍दगी से बात
सारी उजास....
उदासी की शाम...
आवारगी की रात.....
भोर की बात.....
मौजों के साहिल....
शफ्फाक झरने....
एक मौज
एक साहिल.....
एक चांद और ढेर से सितारे.....

बहुत कुछ होता है...
जब कुछ नहीं होता
ह‍थेलियों में.....।
अनुजा
14.09.13
फोटो:आर.सुन्‍दर(c)

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

चालीस के पार....



जि़न्दगी
जब पार कर जाती है 40 वसन्त....

एक सही सलामत
आजीविका का
नहीं होता कोर्इ स्थायी आधार.....
ना ही
कोर्इ सहारा....

ढूंढे नहीं मिलता कुछ भी....
हर
दरवाज़े से बैरंग लिफ़ाफ़े सा
लौटा लाती है उम्र....

साथी
मर जाता है
अपने साथ आने से पहले ही
शहर की किसी दौड़ती सड़क के सन्नाटे में....
दफ़्न रहता है लावारिस सा
शहर के किसी ख़ामोश मुर्दाघर में......

गुलाबों की पंखुरियां झर जाती हैं
नीम के कसैले पत्तों सी
कड़वी हो जाती है समझ....
चिता की लपटों के बीच
झुलस जाता है हर सपना...
सुलगते हुए एहसास
तब्दील हो जाते हैं ठंडी राख में.....
लहराती हुर्इ मुटिठयां
झूल जाती हैं मृत बांह सी...

सपने तब कितने अलग हो जाते हैं सारी दुनिया से....

नर्इ कोंपलों
और
पोढ़ी पत्तियों का कोर्इ मेल नहीं होता....!

04.03.05
अनुजा