रविवार, 28 अगस्त 2011

लौटा लाओ.......

माथे पर
तुम्‍हारा एक चुंबन...
अश्‍वत्‍थामा के रिसते ज़ख्‍़म पर
मरहम...
फिक्र के दो शब्‍द...
अपना ध्‍यान रखो.....
सुकून का एक झोंका.....
बाहों का एक आश्रय....
गले से लगी हुई
आत्‍मीयता.....
एक बार
फिर लौटा लाओ
वो कुछ
बीते पल .......!
अनुजा
02.08.11

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर.......पर.......

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर दरवाज़ा खोला........
तो देखा 8:30 बज गए थे। बारिश का एक तेज रेला बहकर जा चुका था। अपनी भोर के सा‍थियों के स्‍वागत में जो पकवान रखे थे , पानी के तेज बहाव के साथ बहकर जा चुके थे। चिडि़यां ज़मीन पर उन्‍हें तलाश रही थीं। गिलहरी पौधे की एक पतली सी टहनी पर कलाबाजि़यां कर रही थी। सारी की सारी आपस में बतिया रही थीं......बहस जारी थी- 'सुबह हो गयी.... अभी तक उठी नहीं।' एक ने कहा।
'दरवाज़ा तो खुल गया है'- दूसरी बोली।
'उसका कुछ भरोसा नहीं, दरवाज़ा खोल के सो जाती है।' तीसरी ने अपनी राय ज़ाहिर की। ये राय भी ज़रूर उसकी आंखों देखी होगी।
'इतनी देर हो गयी....भूख लगी है', गिलहरी टहनी की फुनगी को कुतरते हुए टुप से बोली।
'क्‍या करें अब'॥, किसी अगली ने चिंता व्‍यक्‍त की।
'चलो, मिलकर शोर मचाएं'....।
' आज अभी तक बाहर भी नहीं दिखाई दी......' किसी ने कहा।
तबियत तो ठीक होगी ना...।
'ओहो, धैर्य रखो न, आ जाएगी.......' गिलहरी सर्र से नीचे उतर आई।

कान में कुछ सुर सुर तो हो रहा था मेरे। गैस के पास खड़ी चाय बना रही थी कि ये खुसुर पुसर मेरे कान में पड़ी। सुबह पानी के कोप से साफ हो चुकी छत को देख चुकी थी। अचानक मुड़कर खिड़की के बाहर देखा तो पूरा का पूरा कुनबा मौजूद था इंतज़ार में अपनी अठखेलियों और प्रपंच के साथ।
अक्‍लमंद को इशारा काफी है।
दाने ले जाकर छत पर बिखेर दिए। और बस सब की सब एक साथ झुंड में चिट् चुट् कलरव करने लगीं। आपस की छेड़छाड़ शुरू हो गयी।
गिल्‍लू तो अभी भी वहीं पर है और खाने में मग्‍न है अपनी पतली टहनी के झूले पर झूलते हुए। उसकी सभी सहेलियां बीच बीच में आकर उसे छेड़ती हैं और नीचे आने को कहती हैं पर अब तक वह अपनी निश्चिंत सी अपने झूले पर झूल रही है।
ये मेरे घर की हर सुबह का दृश्‍य है। और दिनों की अपेक्षा रविवार को यह ज्‍यादा दिखाई देता है क्‍यों‍कि रविवार को मैं देर तक सोती हूं। ये कहानी 14 अगस्‍त की है। आज़ादी के एक दिन पहले की कहानी है......।
सचमुच पंछी, नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्‍हें रोके......।
ऐसा लगता है घर के आंगन से उड़कर यहां मेरा साथ निभाने आ गयी हैं और रोज सुबह हाजिरी लगाने आ जाती और मेरी ये गिटपिट उनसे लगभग रोज़ ही चलती है.......।
..........और वो रोज़ ही अपनी टी वी टी टुट् टुट् में मुझसे मेरा हाल लेती हैं......।
हम एक दूसरे की भाषा समझते हैं..... जानते हैं और बतियाते हैं........।
आंगन की ये अनोखी आत्‍मीय साथी अब धीरे धीरे सिमटती जा रही है........ कम होती जा रही है.......।
ऐसे तो क्‍या बचेगा शुभ कल......।
मैं तो बोलूंगी कि अपनी इस हर सुबह की साथिन को बचा सको तो ही बचेगा 'शुभ कल'।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
मां ने जितने ज़ेवर थे, सब पहन लिये थे
बांध लिये थे....
छोटी मुझसे.....छ: सालों की
दूध पिला के, खूब खिलाके, एक साथ लिया था
मैंने अपनी एक ''भमीरी'' और इक ''लाटू''
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गांव छोड़कर भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे......

आग धुएं और चीख़ पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुएं में भाग रहे थे
हाथ्‍ा किसी आंधी की आंते फाड़ रहे थे
आंखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
मां ने दौड़ते दौड़ते खू़न की क़ै कर दी थी!
जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन....
लेकिन मैंने सरहद के सन्‍नाटों के सहराओं में अक्‍सर देखा है
एक ''भमीरी'' अब भी नाचा करती है
और इक '' लाटू'' अब भी घूमा करता है......!"

गुलज़ार

गुलज़ार..वो पहली मुलाक़ात....वो यादें....

आज गुलज़ार का जन्‍मदिन है.....। हर तरफ उनके प्रशंसकों की बधाइयां हैं।
मुझे याद आ रही है उनसे वो पहली मुलाक़ात......।
ये स्‍वतंत्र भारत के दिन थे....।
तारीख़ आज याद नहीं, पर पुखराज उन दिनों बड़ी चर्चा में थी और मैंनें एक प्रति खरीदकर अपनी एक दोस्‍त के जन्‍मदिन पर उसे भेंट की थी।
गुलज़ार से मैं मिलने जा रही हूं, और साथ्‍ा में जगजीत सिंह भी आए हैं, ये सुनकर उसने एक आह सी भरी थी- हाय रे, हम भी मिलते।
चलो, मैंने कहा। पर वे जाने को तो राज़ी नहीं हुईं, हां मुझे पुखराज पकड़ाई-' इस पर जगजीत सिंह और गुलज़ार के ऑटोग्राफ ले आना।'
मैं और प्रतिभा एक साथ गए थे.....मुझे याद है.....।
पुखराज पर उनके ऑटोग्राफ लिए.....
किसकी है ये तुम्‍हारी... उन्‍होंने पूछा था...
नहीं, मेरी दोस्‍त की है..... मैंने उसे उसके जन्‍मदिन पर दी थी....
पर मुझे नहीं मिली उसके बाद....स्‍टॉक में ख़त्‍म हो गयी थी....।
मैंने सबको दी और मुझे ही नहीं मिली....मैंने शिकायत सी की थी....।
नया प्रिंट आने वाला है..... उन्‍होंने आश्‍वासन दिया।
आज मेरे पास पुखराज है मगर उस कवर पेज के साथ नहीं जो मुझे बेहद पसंद है... किताब और क़लम का....
मुझे शायद सब चाहिए होता है...... पर सब तो हमेशा, हर किसी को नहीं मिलता न...।
जितना मिल जाए उतना ही हमारा हिस्‍सा होता है...।

गुलज़ार नाराज़ थे मीडिया से.....हम उनकी रचनाधर्मिता के प्रशंसकों की तरह उनसे मिलने गए थे.....।
झक सफेद कपड़े पहने वो बैठे थे कमरे में। हमने आने की अनुमति मांगी तो बड़ी सहज और धीमी आवाज़ में उन्‍होंने हमें बुला लिया। हमें उन्‍हें बताना पड़ा कि हम मीडिया से नहीं हैं।
गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं...... यह नवीन जी ने बताया था मुझे....। नवीन जोशी उन दिनों हमारे संपादक थे।
हम गुलज़ार से मिलने उनके कमरे में गए....प्रतिभा तो उनके आशीर्वाद का हाथ सर पर आते ही भाव विभोर हो रो पड़ी और मेरी समझ में नहीं आया कि उनसे क्‍या सवाल पूछूं या क्‍या बात करूं.....
आप कैसे लिखते हैं.... बस इतना पूछ के रह गयी......।
जो किसी न किसी रूप में आपको हमेशा अभिभूत करता रहा हो...... उसको अपने सामने पाकर आप ख़ुद कैसे गूंगे से हो जाते हैं........... और यह भी एक दिलचस्‍प अनुभव है.......संवेदनशील लोगों की प्रतिक्रियाओं का......।
जो मुझे छू गया :
गुलज़ार से मिलना जैसे साक्षात् कविता से मिलना है.... वे न सिर्फ एक खूबसूरत प्रभावशाली गीतकार, कलाकार, निर्देशक और लेखक हैं बल्कि उनसे मिलकर कोई भी यक़ीन के साथ्‍ा यह कह सकता है कि वे एक बेहतर इंसान भी हैं।
उनकी फिल्‍में अगर देखी जाएं ज्‍यादातर.....आंधी हो या किताब..... या म‍ाचिस या बरसों पहले आयी वो एक खूबसूरत फिल्‍म- खुश्‍बू ।
मिट्टी की महक हर फिल्‍म में बरकरार रही। मुझे आज तक नहीं भूली वो फिल्‍म।
खुश्‍बू के नायक थे जीतेन्‍द्र। लेकिन उनका गेटअप ऐसा था कि बहुत दिनों तक मैं यह समझती रही कि गुलज़ार ही अपनी फिल्‍म खुश्‍बू के हीरो थे। युवा गुलज़ार का झक सफेद कुर्ता पायजामा और चश्‍मे का गेटअप खुश्‍बू के नायक ने क्‍या अपनाया कि वह बिल्‍कुल गुलज़ार का लुक सा लगा।
मैंने काफी बचपन में वह फिल्‍म देखी थी और मैं बहुत दिनों तक यह नहीं जानती थी कि गुलज़ार हीरो नहीं कवि और गीतकार हैं....। खुश्‍बू की खुश्‍बू आज भी मेरे मन को महकाती रहती है। किनारा, लेकिन और रूदाली भी ऐसी ही फिल्‍में हैं जो मैं कभी भी नहीं भूल सकती...।
किनारा के भी एक दृश्‍य में जीतेन्‍द्र ने गुलज़ार का सा चश्‍मा लगाकर उनका लुक लिया था.... और उनका वह गीत... नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा....मेरी आवाज़ ही पहचान है....गर याद रहे.....। सचमुच अपनी पूरी ताज़गी के साथ्‍ा यह गीत एक कालजयी गीत है।
आज भी आंख मूंदकर बिना कुछ सोचे समझे गुलज़ार की फिल्‍म देखने बैठ जाती हूं.....। कितनी बार भी देख लूं कोई भी फिल्‍म.... आप कभी बोर नहीं हो सकते.... सामयिकता और ताज़गी कभी गुलज़ार की फिल्‍मों से कभी ख़त्‍म नहीं होती.....।
गुलज़ार की सभी रचनाएं कालजयी और सादगी से भरपूर हैं... यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी...।
गुलज़ार की नज्‍़में हों, गीत हों या फिल्‍में........ दर्द इतना ज्‍़यादा है कि चाहे कितना भी रिसे ख़त्‍म नहीं होता।
उन्‍होंने कहा ही है-
ये शायर भी अजीब चीज़ है
कितना भी कहे ख़त्‍म ही नहीं होता..... कुछ ऐसी ही कैफियत है उन पंक्तियों की......, शब्‍द इस वक्‍त मुझे ठीक से याद नहीं हैं.....।
ये हैं गुलज़ार....भले ही याद न रहें मगर एहसास रहते हैं।

अनुजा

सोमवार, 15 अगस्त 2011

हरसिंगार

हर सुबह देखती हूँ
ज़मीन पर बिखरे हरसिंगार........

और
सोचती हूं
सुख इतना क्षणिक क्‍यों होता है
……?
खूबसूरत सुबहों का ये बिछोह
……!
और कोई नहीं,

कि रूक कर देखे या पूछे
……
अपनी शाख से बिछुड़कर कैसा लगता है तुम्‍हें
.....?
अद्भुत
है……
लाल सूरज और सफेद चांद का ये साथ
…….
उगते सूरज ढलते चांद का ये खुशनुमा साथ
मिलना और बिछुड़ना एक साथ
नए सफ़र के लिए…..
मगर ये है……!यही है हरसिंगार……!
रात भर जो रहता है किसी शाख का मेहमान…..!
और
हर सुबह बिछुड़ जाता है….!
हर नन्‍हा फूल अकेला…..
अपने आप में, सबके साथ होकर भी……
आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं की तरह……!
मत उदास हो….!
लौट जाओ जीवन की हरारत में..... हमारी रात की सुबह अभी नहीं हुई है ....!हमें तो चलना है पिछली सुबह की याद के साथ......!तुम्‍हारी आंच मुझ तक आती है .....और तुम्हारी बारिश भी भिगोती है मुझे....!मगर हम सब अपनी जगह पर जमे बोनसाई हैं....अपनी दहलीजों में क़ैद.....!
हमारे सिर्फ शब्‍द पहुंचते हैं कानों तक .....
और शायद कभी ख़ामोशी भी......!आंखों तक उंगलियां नहीं जा पातीं.......!
कभी ख़ामोशी को बहते और बोलते हुए सुनो....!
वहां है कुछ...तुम्‍हारे लिए.....
जीवन की तरह.......
बरगद की तरह........
ओस की ठंडक की तरह ....
अपनेपन की तरह......
लौट जाओ जीवन की गर्माहट में.......
सब हैं वहां तुम्‍हारे लिए.....
जिनकी ज़रूरत है तुमको.....!
अनुजा