गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

चाक चौबन्‍द चौबारा.......

तस्‍लीमा नसरीन का मुद्दा अभी ठंडा नहीं पड़ा है। हां उसकी आंच कुछ कम हो गयी है। शायद तस्‍लीमा के आत्‍मसमर्पण या यों कहें समझौते की वजह से। मगर नंदीग्राम की आग अभी भी झुलसा रही है। यहां दो सवाल हैं जो आपके बीच चर्चा के लिए छोड़े जा रहे हैं, आपकी बेलाग टिप्‍पणी का इंतज़ार है.....

  • तस्‍लीमा बनाम नन्‍दीग्राम। ये राजनीति है, धर्म है या अभिव्‍यक्ति की आज़ादी पर हमला अथवा तस्‍लीमा के बहाने नंदीग्राम पर से ध्‍यान हटाने की कोशिश ।
  • क्‍या द्विखंडिता से विवादास्‍पद हिस्‍से निकाल देने का तस्‍लीमा का निर्णय सही है।

रविवार, 4 नवंबर 2007

शोषितों की इतिहास रचना का म‍हत् क्षण

यह समीक्षा अब से तीन बरस पहले लिखी गयी थी, जब 'संगतिन यात्रा' नई नई प्रकाशित हुई थी। इसे लिखे जाने का उद्देश्‍य तो था कि इसे इसके लेखिका समूह को भेजा जाए और उस निमित्‍त इसे दिया भी गया था परन्‍तु न जाने क्‍यों और कैसे यह उन तक नहीं पहुंची.......। इसके उत्‍तर का मौन ही दरअसल इसका जवाब है.....क्‍योंकि ये मौन भी वहीं से आया है जिनके खिलाफ़ एक मुहिम के तौर पर सामने आयी है 'संगतिन यात्रा ' ।
'संगतिन यात्रा ' के आने के बाद क्‍या हुआ ये तो अगर ऋचा सिंह खुद बताएं तो बेहतर होगा। हमें उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा......; देखने, पढने के बाद हमें कैसा लगा अभी यहां बस इतना ही......।


'संगतिन यात्रा' में एक क़दम साथ साथ........
गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करने की शुरूआत एक्‍सीडेंटल ही थी। न जाने क्‍या ढूंढते-भटकते हुए कभी अचानक इस दुनिया से रू -ब-रू हुई थी। तब तक संगठनों, समाज सेवा और प्रतिरोध विरोध को व्‍यवसाय समझना नहीं सीख सकी थी (आज सीख्‍ा, समझ और स्‍वीकार कर पायी हूं, यह भी पूर्ण विश्‍वास से नहीं कह सकती)। दुनिया में किसी के कुछ काम आ सकूं, बस इतना ही सपना था।........पर जब से इस दुनिया से परिचय हुआ , आंखें कई बार अचम्‍भे से फैलती रहीं-' क्‍या ऐसा भी होता है' , शायद यह एक अव्‍यावहारिकता ही कही जाएगी दुनिया में और समय से बहुत पीछे होना.......पर सच यही है। एन.जी.ओ. की दुनिया को जब से जानना समझना शुरू किया....... क़लम बहुत मचलती थी और आक्रोश बहुत उद्वेलित करता था कि कुछ कहूं पर अंधेरे में कुछ भी न कहने की फितरत हमेशा इंतज़ार करने के लिए रोक लेती। यह दीगर बात है कि वे सारी उम्‍मीदें, जिन्‍हें समाज सेवा के बदलते प्रत्‍यय ने तोड़ दिया, मन को हमेशा मथती रहीं।

समता और समानता के लिए लड़ाई करने का दावा करने वालों के दोमुहेंपन से उपजे आक्रोश को अभिव्‍यक्ति का रास्‍ता दिया इस 'संगतिन यात्रा' ने। हर दो पृष्‍ठ पढ़ने के बाद बेचैनी इतनी बढ जाती थी कि अगला पृष्‍ठ पढने के लिए बैठे रहना संभव नहीं हो पाता। फिर भी इसे दो दिन में ख़त्‍म कर दिया। ऋचा सिंह और ऋचा नागर से मेरा सीधा कोई परिचय नहीं। संस्‍थाओं के कार्यों और लेखन के संदर्भ में दूसरे लोगों से‍ मिलते हुए उन्‍हें देखा और जाना है। आज शायद उनके चेहरे भी नहीं याद हैं मुझे।.....पर संगतिन यात्रा की इन सात पथिक लेखिकाओं को, जिन्‍होंने अपने मन की गांठें यहां खोली हैं और व्‍यवस्‍था के स्‍वरूप पर कुछ मूल प्रश्‍न उठाए हैं, कई चेहरों के साथ, कई चेहरों में बार-बार उन्‍हें देखा है, जाना है, समझा है। हर चेहरे में बोलने की, कहने की आकुलता लिए खामोशी का जबरन साधती वो बार-बार दिखी हैं, हर कहीं.......।
अपने सच को बेधड़क, बेखौफ कह जाने, स्‍वीकार कर लेने का साहस ज़मीन से जुड़े उन लोगों में ही है जो असली लड़ाई लड़ते हैं लेकिन पर्दे पर कभी नहीं आते, बुर्ज पर कभी नहीं सजते, भीड़ में सबसे पीछे चलते हैं गुमनाम से। ये वही लोग हैं जो हालांकि सारी लड़ाई का नेतृत्‍व खुद करते हैं पर 'नेता' किसी और को बना देते हैं आखिरी पंक्ति में खड़े होकर। ऋचा सिंह की उलझन भी वही है जो पिछले कई बरसों से मेरी है......पर वह क्‍या मजबूरी है कि हम अब भी यहीं हैं.....यह अस्तित्‍व की तलाश है या रोज़ी की ....अथवा रोज़ी के, आत्‍मनिर्भरता के बहाने अपनी पहचान, अपनी अस्मिता की तलाश।

चीज़ें उतनी सुन्‍दर, सहज और निश्‍छल नहीं हैं जितनी कि बाहर से लगती हैं। ऋचा सिंह ने अपनी क़लम से (संगतिन यात्रा; पृष्‍ठ 8-10) जो कुछ भी कहा है, वह बेहद कड़वा सच है और विडम्‍बना भी कि मुक्ति की, समता और समानता की लड़ाई, श्रम की पहचान और उसके अधिकार की लड़ाई ऐसे लोगों के हाथ में है जो वैचारिक और कार्य स्‍तर पर शोषण, गैर बराबरी और भ्रष्‍टाचार के दलदल में आकंठ डूबे वो कीटाणु हैं जिनका ज़हर पूरे आंदोलन को न सिर्फ कमज़ोर कर रहा है बल्कि उसकी शक्‍ल भी बदलता जा रहा है। ऋचा सिंह ने जिस बात को इतने क्षोभ और दु:ख के साथ्‍ा किसी क्षेत्र विशेष के बारे में इतनी विनम्रता से कहा है उसे नग्‍न और वीभत्‍स शब्‍दों में कुछ यों कहा जा सकता है कि ये सब बाज़ार का खेल है और ये सारे तथाकथित समाजसेवी उन्‍हीं मुरदारों के हाथों की कठपु‍तलियां हैं जिन्‍होंने स्‍त्री की मुक्ति, समता और समानता की जायज़ लड़ाई को चंद सिक्‍कों में तौल दिया है।........ और ये ऐसी कठपु‍तलियां हैं जो उनकी लय ताल को इतनी निपुणता से सीख चुकी हैं कि अब ख़ुद ही उस पर नाचने-नचाने लगी हैं। ये एक ऐसी पौध को तैयार करते जा रहे हैं जो समता, समानता और मुक्ति की लड़ाई में एक शोषण का बाज़ार चलाने में दक्ष होती जा रही हैं।

'संगतिन यात्रा' पर कुछ समीक्षकों, लेखकों व संपादकों से भी चर्चा हुई। इसे देखने का उनका नज़रिया बहुआयामी है और उनकी आलोचना शायद व्‍यक्तिगत जानकारियों और अनुभवों से प्रेरित। पर सच यह है कि स्‍त्री जीवन के इस पूरे यात्रा वृतान्‍त को सिर्फ पथिकों के नज़रिये से देखा जाना चाहिए, पथिकों के कथाकारों के नज़रिये से नहीं। एन.जी.ओ. कार्य प्रणाली/व्‍यवस्‍था के सकारात्‍मक व नकारात्‍मक परिणामों (वैसे नकारात्‍मक कम ही मिलेंगे क्‍योंकि दानदाताओं को उनके धन का पूर्ण सदुपयोग और अपेक्षित सुखद परिणामों की रपट प्रस्‍तुत करना इनकी कार्य व्‍यवस्‍था की एक रणनीति है) के दस्‍तावेजों की भीड़ में यह एक ऐसा दस्‍तावेज है जो इस सारे हंगामे की पोल पूरी निर्ममता से खोलता है। तमाम फंडिंग एजेंसियों, दानदाताओं की नीतियों, उद्देश्‍यों, उसके अमल की असली तस्‍वीर सामने रखता है।
नारी विमर्श की इस पूरी यात्रा में यह एक ऐसा दस्‍तावेज है जो आंदोलन के खोखले होते जाने को रेखांकित करता है और नारी विमर्श के महान् अध्‍येताओं और चिंतकों के गहन गंभीर सूत्र वाक्‍यों को बहुत पीछे छोड़ देता है। सतह पर जिस नारी विमर्श की जागीरदारी को लेकर इतनी कलह मची हुई है, उस नारी विमर्श की असली नायिकाएं इस सारी लड़ाई व इसके चिंतन को खारिज करती हुई उन्‍हें भौंचक छोड़ेंगी, यह दावा है। बशर्त्‍ते इसे तमाम साहित्यिक व आंदोलनात्‍मक मानकों के निकष पर न कसा जाए। अगर इसे बिना किसी विचार मंथन के सहजता के साथ ग्रहण किया जाए तो कितनी ही कथा पात्रों की वास्‍तविकता यहां दिखाई पड़ जाएगी।
बचपन, कैशोर्य, विवाह, मातृत्‍व और फिर स्‍वायत्‍तता और आत्‍मनिर्भरता का संघर्ष......संगतिन यात्रा का एक-एक पृष्‍ठ एक मुद्दा और हर अभिव्‍यक्ति एक नया सच.....उन सारे सत्‍यों को परास्‍त करता, नकारता हुआ, जिन्‍हें अब तक सामने नहीं रखा गया। यह शोषितों की इतिहास रचना का महत् क्षण है। भविष्‍य वर्तमान के अतीत होने पर अतीत के दोनों सत्‍यों को समान रूप से देखकर नयी संतुलित दुनिया रचने का बीड़ा उठा सके, यह उसकी शुरूआत है।
पल्‍लवी, शिखा, मधुलिका, चांदनी, संध्‍या, राधा, गरिमा.... बचपन से लेकर जीवन के जिस मोड़ पर वे खड़ी हैं उस तक के सारे सफर के वे सारे लम्‍हे......सुख्‍ा के, दु:ख के, खुशी के, अवसाद के...। पर पूरी पुस्‍तक टटोलें तो खुशी और सुख के इने गिने लम्‍हे ही दिखाई पड़ेंगे। बचपन आंसुओं से सराबोर, उपेक्षा की आंधी से जूझता हुआ....कैशोर्य विचारों, भावनाओं, गतिशीलता पर पहरे और पाबन्‍दी लगाता हुआ, जवानी ससुराल और परिवार की जिम्‍मेदारियों को ढोते हुए। समाज और समय के बंधन के अंधड़ का शिकार सबसे पहले वही शख्‍़स होता है जो संसाधनों से महरूम होता है, गरीबी से जकड़ा होता है। इन सात कथाओं की व्‍यथा उनकी डायरी से उद्धृत किए गए अंशों से और तीव्रता से छलक आती है जो शब्‍दश: वैसे ही रख दिए गए हैं। 'यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते' की अवधारणा यहीं खण्‍ड खण्‍ड होती दिखाई पड़ती है। पितृसत्‍ता का दंभी वर्चस्‍व वैसे भी स्त्रियों की मुखरता और आत्‍मविश्‍वास को स्‍वीकार नहीं कर पाता। खामोशी से मुस्‍कराकर बात को तरे डाल देने वाली स्त्रियां/लड़कियां ही उन्‍हें भली लगती हैं ( अपने जीवन में तो उन्‍हें गाय ही चाहिए, जिसके मुहं में जुबान न हो और सींगों से वे उन्‍हें साध सकें) फिर ऐसे में जीवन के तमाम संघर्षों, द्वन्‍द्वों को शब्‍द देने वाली इन महिलाओं को क्‍या सहना पड़ा और क्‍या सहना पड़ेगा, अकल्‍पनीय है।
ताज्‍जुब की बात है कि ये अनुदानदाता एजेंसियां जिनके विकास और मुक्ति के नाम पर अनुदान देती हैं, उन्‍हीं की असुविधाओं, दिक्‍कतों, परेशानियों का उनके सामने खुलासा नहीं होता और ना ही उनकी उपलब्धियों व परिश्रम का श्रेय उन्‍हें दिया जाता है। पूरी चेन में वही सबसे नीचे हैं जो नींव के पत्‍थर की तरह काम कर रहे होते हैं पर उनके महत्‍व और बलिदान से नावाकिफ हैं वो जो उन्‍हें बुर्ज के सौन्‍दर्य का सा सम्‍मान देना चाहते हैं। आज नींव के पत्‍थर जब अपनी बोली बानी में खुद ही बोल उठे हैं अकुलाकर तो उसे हर छल बल-कपट , रीति, नीति से परे सिर्फ सच के न‍ज़रिये से देखा जाना चाहिए। मुक्ति के संघर्ष में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमिका को समझना और स्‍वीकार करना चाहिए। शायद यही मुक्ति के संघर्ष में मील का पत्‍थर साबित हो। ......और शायद यही हो मुक्ति के संघर्ष का प्रस्‍थान बिन्‍दु।

पुस्‍तक का नाम : संगतिन यात्रा
प्रकाशक : संगतिन

अनुजा

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

मैं कहूंगी अपने नज़रिये से...

क्‍या सच में मैं विचारशून्‍य थी....
कि सिर्फ तुम्‍हारे दर्प,
तुम्‍हारी असुरक्षा के भय ने बनाया
मुझे अज्ञात विचारशून्‍य...
जिसका सारा चिन्‍तन
बस चूल्‍हे की आंच को धीमा तेज करने
स्‍वादिष्‍ट पकवान बनाने...
अचार पापड़ बड़ी रचने....
तुम्‍हारे बिस्‍तर की शोभा बनने...
तुम्‍हारी चरित्रवान पुत्री से
तुम्‍हारी प्रिया..
तुम्‍हारी सुशील कुशल बहू बने रहने....
तुम्‍हारे बच्‍चों की अच्‍छी मां बनने के
प्रयासों तक सीमित रहा
कभी इंसान होने तक का रास्‍ता ढ़ूढने का मन भी किया
तो तुम्‍हारे अहं की आंच में झुलस गए मेरे पांव...
कभी मन की बात को शब्‍द देने का प्रयास किया
तो तुम्‍हारे उपहास और उपेक्षा ने मौन का ताला लगा दिया....
तुम्‍हारे संसार में मैं मौन और तुम्‍हारे तथाकथित वंश में
मैं अज्ञात और अदृश्‍य ही रही...
तुम्‍हारी पहचान तो तुम्‍हारे जन्‍म से ही शुरू हो गयी...
हर बरस तुम्‍हारे जन्‍मदिन की धूमधाम उसे और प्रगाढ़ करती गयी....
हर उपलब्धि उसे और निखारती गयी
और मैं हर बरस अपने चुपचाप सरक जाने वाले
अज्ञात मौन से जन्‍मदिन को अपने विचारों में संजोती गयी
सपनों की तरह....
एक दिन मैंने देखी तुम्‍हारी वंशबेल की कहानी......
और पाया
कि तुम्‍हारी वंशबेल जो मुझसे फल फूल रही थी...
जिसके लिए हर बार मैं सहती थी
त्रासद यंत्रणा....
नौ महीनों का बोझ....
और जन्‍म देने की पीडा....
तुम्‍हारी उस वंशबेल के इतिहास में मैं तो बिन्‍दु भर भी नहीं थी....
थे तो केवल तुम.....
मैं अज्ञात और अदृश्‍य थी.....



पर आज..
आज तो सारा आसमान है मेरा....
आज तुम्‍हारी दी हुई विचारशून्‍य अज्ञात की पहचान को
मैंने तुम्‍हारी दहलीज के भीतर छोडकर
आसमान में पसार लिए हैं पंख...
अब तुम्‍हारी वंशबेल के इतिहास की पहचान की मोहताज नहीं है
मेरी उडा़न....
अंतरिक्ष्‍ा में खोल दिए हैं मैंने अपने पंख.....
अब दिशाओं का ज्ञान और उनका चयन मेरा हक़ है....
अब मैं मौन अज्ञात विचारशून्‍य नहीं हूं
कि मर जाएं मेरे सब विचार मेरे ही मन में....
बह जाएं हर बार मेरे उत्‍सर्जन की प्रक्रिया के साथ
रं‍गीन कपडों के साथ कूडे़ के ढेर में...
और बस यूं ही खत्‍म हो जाए मेरी कहानी
अज्ञात विचारशून्‍य
एक दिन रंगीन या सफेद कपड़ों के साथ
चिता में....।


अब
मेरे पास आवाज़ भी है
और पंख भी
अब तो तुम न मेरी उड़ान रोक सकते हो
न विचार.....
तब से लेकर अब तक...
अपनी से लेकर तुम्‍हारी तक सब कहानी...
अब मैं कहूंगी अपने नज़रिये से......।

महबू‍बा ने जो कुछ कहा......


'आफ़्सपा' को खत्‍म करो

जम्‍मू-कश्‍मीर से सेना वापसी, कश्‍मीरी स्‍वायतता, अलगाववादियों के संघर्ष, अफ़जल की फांसी और आफ़्सपा कानून जैसे मसलों पर पीपुल्‍स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्‍यक्ष महबूबा मुफ्ती से अजय प्रकाश की बातचीत :
कश्मीर में भारतीय फौजों की मुस्तैदी क्यों नहीं की जाये?
वर्ष २००४ के लोकसभा चुनावों में अस्सी फीसदी वोट पड़ने से यह साबित होता है कि परिस्थितियां बदल चुकी हैं हालिया सरकारी आंकडों के मुताबिक़ मात्र ८०० आतंकवादी कश्मीर में सक्रिय हैं जबकि कभी इनकी तादाद हज़ारों में थी और लाखों की संख्या में इनके समर्थक थे पिछले २००३-०४ से भारी संख्या में पर्यटकों का आना-जाना शुरू हुआ है ऐसे में तमाम तथ्य इस बात की गवाही देते हैं के कश्मीरियों को फौज की नहीं, नये सुकूनी माहौल की ज़रूरत है १७ सालों से अस्पताल, स्कूल, ऑफिस, मस्जिद, यहां तक कि हमारे खेत भी फौजों के साये से ऊब चुके है नयी पीढियां अब खुली हवा में सांस लेना चाह्ती हैं एक नागरिक का सम्मान चाहती हैं

क्या फौज हटाने पर हालात बदतर नहीं होंगे
खौफ में जी रहे लोगों के बीच से सेना चली जायेगी तो जनता, सुरक्षा बलों से भी बेहतर ढंग से संतुलित हालात क़ायम करेगी। क्योंकि उसे फिर से फौज नहीं चाहिये प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और सेना प्रमुख का बार-बार यह कहना कि कश्मीर की आबो-हवा बदली है और लोगों की लोकतंत्र के प्रति आस्था बढी है, इसी बात की गवाही है। जिन पार्टियों या संगठनों को यह लगता है कि फौज हटते ही कश्मीर में आफत आ जायेगी वह लोकतंत्र में सरकार की भूमिका को दरकिनार करते हैं शांति व्यवस्था बनाये रखने का सारा दारोमदार जब फौज पर ही है तो चुनाव कराने की क्या ज़रूरत। राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लागू करा दिया जाता? भारतीय फौज की छवि कश्मीरियों के बीच कैसी है?कश्मीर के मामले में ये सच है कि कभी फौजों ने सड़क या पुल निर्माण जैसे बेहतर काम भी किये हैं। मगर सैकड़ों फर्जी मुठभेडें भी फौजी जवानों ने ही की हैं
आजादी से लेकर अब तक कश्मीर समस्या के समाधान के प्रति राज्य और केन्द्र में से बेहतर रोल किसका रहा है?
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच जिस वार्ता की शुरूआत की उसे ही मैं समाधान की तरफ बढा़ पहला क़दम मानती हूं हां, यह सच है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसी को सावधानी और सफलतापूर्वक आगे बढा रहे हैं अवाम को समझ में आ गया है कि कश्मीर समस्या का समाधान हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और कश्मीरी प्रतिनिधियों की त्रिपक्षीय वार्ता से संभव है,हथियारों से नहीं एक मत ऐसा भी है कि जम्मू कश्मीर में जारी अशांति और खौफ हिन्‍दुस्‍तान पाकिस्‍तान का सियासती मुआमला है। यह बीते समय की बात है अब भारत और पाकिस्तान में होने वाली सियासतों के साथ-साथ आर्थिक ज़रूरतें भी महत्वपूर्ण हो गयीं हैं सही मायने में बाजार की ज़रूरतों ने उन सरहदों को तोड़ना शुरू कर दिया है जिनका राजनीतिक हल नहीं निकल सका क्या यह अच्छा नहीं होगा कि लोग सरहद पार पाकिस्तान के मुज़फ्फ़राबाद से खरीदारी करें और पाकिस्तान के लोग भी कश्मीरियों को गले लगायें दोनों देशों में जारी भूमण्डलीकरण ने जो नयी सामाजिक-आर्थिक परिघटना पैदा की है उससे भारत-पाकिस्तान के बीच एक नये सौहार्दपूर्ण भविष्य का निर्माण होगा।
अलगाववादियों के संघर्ष से पीडीपी के कैसे रिश्ते हैं, कश्मीर देश बनाने की मांग आज के समय में कहां खड़ी है?
लोकतंत्र में सभी को अपने मत के हिसाब से संगठन बनाने का अधिकार है। मैं अलगावादियों की मांगों को सिर्फ इसी रूप में देखती हूं। स्वायत्त कश्मीर की मांग पीडीपी कभी नहीं किया। यह मुद्दा नेशनल कांफ्रेंस का है। पीडीपी का मानना है कि स्वायत्तता से बड़ा प्रश्न जनता के सशक्तीकरण और नागरिक अधिकारों को बहाल कराने का है। साथ ही राज्‍य के लोग एक लंबे अनुभव से यह समझ चुके हैं कि अलग कश्मीर समस्या का समाधान नहीं है। कहा जा रहा है कि अफजल की फांसी, एक बार फिर कश्मीरी युवाओं के हाथों में हथ‍ियार थमा सकती है। १९८४ में मकबूल बट्ट को फांसी दिये जाने के बाद युवाओं ने हिन्दुस्तानी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठा लिये थे। खुदा-न-खास्ता ऐसा हुआ तो कहा नहीं जा सकता कि कैसे हालात बनेंगे? पीडीपी की मांग रही है कि अफजल को फांसी न दी जाये। पहले फेयर ट्रायल हो फिर सजा मुकर्रर की जाये।
कश्मीर में लागू आफ्सपा के बारे में आपका मत ?
आफ्सपा अलोकतांत्रिक कानून है । इसमें न्‍यूनतम नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान वार्ता सुचारू हो, कश्मीरी भारतीय सरकार में विश्वास करें, इसके लिए जरूरी है‍ कि सरकार जन विरोधी कानून को तत्‍काल रद्द करे। आफ्सपा की दहशत को हम दिल्ली या किसी दूसरे राज्य में रहकर महसूस नहीं कर सकते। कोई कश्मीर में जाकर देखे कि शादी के मंडप से लेकर अस्पताल तक संगीनों और कैंपों की इजाजत के मोहताज होते हैं।
कश्मीर के पैंतीस फीसदी शिक्षित युवा बेरोजगार हैं, इसके लिये कोई प्रयास।
अभी राज्य को हम एक असामान्य से सामान्य राज्य की तरफ ले जा रहे हैं। पूरी ताकत से रोजगार सृजन और साधन संपन्न कश्मीर बनाने की तैयारी है। गौर करने लायक यह है कि देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों के उद्योगपति कश्‍मीर में कल-कारखाने खोलने से हिचक रहे हैं। कारण कि यहाँ फौज है। जब तक फौज रहेगी, पुरस्कार के लिये कश्मीरी युवा पाकिस्तानी आतंकवादी बताकर मारे जाते रहेंगे और उद्योगपति कश्मीरी सीमा में प्रवेश ही नहीं करेंगे। जहाँ घाटी के एक लाख कनाल जमीन पर सुरक्षा बल अबैध रूप से कब्जा जमाये हुये हैं वहीं लद्दाख के दो लाख कनाल पर उनका ही कब्जा है। सभी जानते हैं कि लद्दाख आतंक प्रभावित क्षेत्र नहीं है। साथ ही हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में हुई इन्डस ट्रीटी संधि से हर साल ६,००० करोड़ रुपये का नुकसान होता है जिसका प्रत्यक्ष असर कश्मीर की अथर्व्यवस्था पर पड़ता है।
राज्य में कश्मीरी हिन्दुओं पर हुये जुल्मों के लिये मुस्लिम कट्टरपंथ कितना जिम्मेदार है?
जो जुल्म हुआ उसमें सिर्फ कश्मीरी हिन्दू ही तबाह-बरबाद नहीं हुए बल्कि मुस्लिम भी आतंकवादी और फौजी हमलों में मारे गये। कश्मीरी हिन्दुओं के जाने से स्कूलों के मौलवी बेरोजगार हुये, क्षेत्र की अथर्व्यवस्था चौपट हुयी। बहरहाल सौहार्द का माहौल कायम हो रहा है। इस वर्ष खीर वाड़ी पर्व पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं का पहुंचना इसी का प्रमाण है। पीडीपी पर यह आरोप है कि वह कट्टरवादी शक्तियों का समर्थन करती रही है? हमेशा से पीडीपी आरोपों का जवाब अपने काम से देती आ रही है। हमारा समर्थन सुकून और सौहार्द कायम करने वालों के साथ है, आरोप चाहे जो लगें।

संघर्ष की परंपरा का स्‍तंभ है लिखना और लड़ना- बेबी हालदार

प्रेमचंद्र के नाती प्रबोध कुमार ने भले ही हिन्‍दी साहित्‍य को अपनी रचना के जरिये अवदान नहीं दिया लेकिन उन्‍होंने रचनाकार तैयार किया है,वह भी विश्‍वविख्‍यात। उन्‍होंने अपने घर में सातवीं पास सेविका बेबी हालदार को लेखिका बना दिया। हालदार की आत्‍मकथा 'आलो आंधारि' का साहित्‍य जगत में जोरदार स्‍वागत हुआ। वह निरंतर रचनारत हैं। 'दि संडे पोस्‍ट' संवाददाता अजय प्रकाश ने दर्जनों भाषाओं में छप चुकी 'आलो आंधारि' की लेखिका बेबी हालदार से बातचीत की। पेश है उसके अंश :

कम समय में आपने बतौर लेखिका ख्‍याति हासिल कर ली, भविष्‍य की क्‍या योजनायें हैं।
मेरी भविष्‍य की योजना सीखने की है-अपने समाज से, शागिर्दों से। सच कहा जाये तो अभी तो मैंने समाज को लेखक की आंखों से देखने की शुरूआत भर की है। 'आलो आंधारि' लिखने के बाद मैंने महसूस किया कि उसमें वह बाकी रह गया जो उसे और उत्‍कृष्‍ट बना सकता था। इसलिये मैं अपनी पिछली किताब से सबक लेकर अगली किताब लिख रही हूं। लगभग तैयार हो चुके इस उपन्‍यास का नाम अभी तय नहीं हो पाया है। इसे भी रोशनाई प्रकाशन ही प्रकाशित कर रहा है।
किन उपन्‍यासकारों ने आपको 'काम वाली बाई' से 'आलो आंधारि' की बेबी हालदार बना दिया। लेखिका तसलीमा नसरीन का उपन्‍यास 'मेरा बचपन' पढकर मेरे सामने अपनी जिंदगी की कथा जीवंत हो उठी थी। मैंने महसूस किया कि ऐसी कथा तो मेरी भी है, मैं लिख सकती हूं और फिर लिख डाला। आज 'आले आंधारि' हिन्‍दी, अंग्रेजी, बांग्‍ला, कोरियाई समेत कई भाषाओं में छप चुकी है या छपने को तैयार है।
एक नौकरानी को तसलीमा कैसे मिली।
मैं बेहतर जीवन की तलाश में पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर से दिल्‍ली आयी थी। वर्ष 2000 में प्रबोध जी के यहां काम करने के वे शुरूआती दिन थे। मैं किताबों के आसपास जमीं गर्द को झाड़ते हुए बांग्‍ला भाषा की पुस्‍‍तकों को पलट लेती थी। कई बार मुझे किताब की अलमारी के पास देर भी हो जाती थी। किन्‍तु किताबों के लिए कभी तातुस (स्‍पेनिश में पिता को कहा जाता है) ने टोका नहीं। एक दिन काग़ज़ क़लम दिया और कहा जो पढ़कर तुम सोचती हो लिखा करो। हिचकिचाहट के साथ जब लिखना शुरू किया तो तातुस ने तसलीमा का 'मेरा बचपन' पढकर नोट्स लेने की बात कही और यह भी कहा कि उसने भी आपबीती ही लिखी है। तातुस के आत्‍मीय सहयोग और सचेतन कोशिश से मुझे बल मिला। उपन्‍यासों, कहानियों के लिखने का सिलसिला तभी शुरू हो पाया।
शिक्षक, पिता या पथ प्रदर्शक आप किस रूप में तातुस को महसूस करती हैं।
इन सबसे बढ़कर वो मेरे जीवन का वह पथ हैं जिसकी बदौलत हमें नई जिजीवषा मिली है। बांग्‍ला में लिखे मेरे पन्‍नों का अनुवाद करते जाना, अनुवादों को अन्‍य लेखकों की राय के लिए पतों पर भेजना यह सारा उद्यम उन्‍होंने कुछ यूं किया मानो वो खुद ही रच रहे हों। उनके किसी भी व्‍यवहार से मुझे कभी नहीं लगा कि वह उपकार या सहानुभूति की भावना से प्रस्‍थान करते हैं।
तातुस नया क्‍या कर रहे हैं
एक नौकरानी लेखिका या कुछ और भी हो सकती जानकर लोग संपर्क उनसे संपर्क कर रहे हैं। प्रबोध जी रचनाकारों की ऐसी पीढी़ तैयार कर रहे हैं जो साहित्‍य से सदियों दूर रही है। वह सौंदर्य गहरा होगा, सच्‍चाई मारक होगी जब वे खुद लिखेंगे जो उन जीवन परिस्थितियों को जी रहे हैं।
वर्ष 2000 के पहले वाली बेबी हालदार के बारे में कुछ बताइये।
ए‍‍क ही सपना था कि जिस जकड़न और घुटन की जिंदगी जीने के लिए मैं मजबूर हूं उससे अपने बच्‍चों को उबार लूं। पति इस काबिल नहीं थे कि वह पालन कर पाते। मैंने सुना था दिल्‍ली पहुंचने पर जिंदगी थोडी़ बेहतर हो जाती है, काम वाली बाई पेट भर लेती है। बच्‍चों को लेकर मैं भाई के पास दिल्‍ली आ गई और संयोग से तातुस का घर मिल गया। मात्र कुछ महीनों में ही मैं इंसान का दर्जा पा
गयी जिससे देश के करोड़ों लोग महरूम हैं।
उन महरूमों के लिए आप क्‍या करना चाहती हैं।
कुछ वैसा ही जैसा महाश्‍वेता देवी कर रही हैं। स्त्रियों,दलितों एवं उपेक्षित तबकों के पक्ष में लेखन करना चाहती हूं जिसे वह अपना साहित्‍य कह सकें। लड़ना और लिखना संघर्ष की ही परंपरा के मजबूत स्‍तंभ हैं। कहा जा सकता है कि एक लेखक किसी एक के अभाव में एकांगी हो जाता है, अपनी जड़ों से उखड़ जाता है।