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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां.....

हमसफ़र होता कोई तो बांट लेते दूरियां
राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां।।

मुस्‍कुराते ख्‍़वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी कि़स्‍मत की नामंजूरियां।।

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवां
जि़न्‍दगी का नाम है लाचारियां मजबूरियां।।

फिर किसी ने आज छेड़ा जि़क्र-ए-मंजि़ल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गयीं हैं दूरियां।।


http://www.youtube.com/watch?v=AYP4CHVRAXE