अशआर मेरे... लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अशआर मेरे... लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

ग़ज़ल....


सितारे हों बुलन्दी पर अक्सर यूं भी होता है 
लगी हो आग जब तब भी शरारे बात करते हैं।।

हो उनकी बात का मौसम कि उनकी आंख का जादू 
हमारा क्या अगर हंसकर इशारे बात करते हैं ।।

उफ़क की लाल आंखें हों कि शब का सांवला आंचल
कोर्इ हो वक्‍़त लेकिन ये नज़ारे बात करते हैं।।

हो मौजों की रवानी या भंवर की एक सरगोशी
निकल कर झील से फिर ये शिकारे बात करते हैं।।

लकीरें साथ गर देदें तो साहिल साथ चलता है
घिरा हो लाख तूफां पर किनारे बात करते हैं।।

अनुजा

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

ग़ज़ल

तू नहीं तो तेरा ख्‍़याल सही
दिल को थोड़ा तो हो मलाल सही।

उसको जिसकी तलाश थी कब से
है तू ही तो वो बेमिसाल नहीं।

इतने बरसों कहां रहा वो गुम
पूछना है उसे सवाल यही।

कैसे ढूंढेगा वो पता मेरा
देखना है मुझे कमाल यही।

तड़पने दो ज़रा उसे भी कभी
वो भी जाने मेरा जमाल सही ।

तुझको अपनी ख़बर नहीं है ग़र
मुझको भी है मेरा ख्‍़याल नहीं।

जो न लफ़्जों में सिमट पाएगा
आसमां पर उड़ा गुलाल वही।

अनुजा
29.12.1996


ग़ज़ल

उसे भी याद आयी जो जानता था हमें
तो अब तुम्हारी नवाजि़श का इंतज़ार ही क्या।

लहूलुहान अगर जिस् हुआ कांटों से
तो फिर हमारे चमन में कोई बहार ही क्या।

ख़ुदी भी अब तो हुई बेअसर ख़ुदाओं पर
बगैर वक़्त के मिलता है इंतज़ार भी क्या।

यूं कहो कि खुदा कुछ नहीं है दुनिया में
बिना ख़ुदा के नहीं कुछ मिला करार ही क्या।

अगर संवरना है तो टूटना भी वाजि़ब है
बिना तराशे मिला गुल को है निखार भी क्या।

अनुजा
03.12.1996

रविवार, 18 दिसंबर 2011

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

ये भी इन्‍सान की नवाजि़श है
बिन पिए ही वो आज बेख़ुद है।

सांप की तरह लग रहा है अब
ऐसी कुछ आदमी की फि़तरत है।

कुछ सही या ग़लत समझ न अरे
जब तक उसकी नहीं इनायत है।

हमसे ही छीनते हो तुम मंजि़ल
ऐसी भी हमसे क्‍या अदावत है।

कोई अ‍ाखि़र तो निगहबान बने
कब से ख़ाली पड़ी इमारत है।

दिन गए वो कभी मिला ही नहीं
कैसे जानें उसे मुहब्‍बत है ।

जब उठा है तो गिर सकेगा नहीं
उसके गिरने में ही क़यामत है।

इस खिजां से कहो ज़रा ठहरे
कुछ बहारों की भी हक़ीक़त है।

बाज की तरह छीनता है सब
कैसी उस आदमी की नीयत है।

तुम भी ले लो जो तुमको ठीक लगे
सबको थी, तुमको भी इजाज़त है।

या सहारा न दो, या साथ चलो
अब नहीं टूटने की हिम्‍मत है।

अनुजा
30.11.1996

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

इस कदर थक के चूर हैं आंखें
कोई सीढ़ी नज़र नहीं आती।

वक् की राह देखते हैं यूं
कोई सूरत भी अब नहीं भाती

याद आती है अब अकेले ही
साथ उसको कभी नहीं लाती।

रौशनी कम है इन सितारों की
तीरगी को मिटा नहीं पाती

कब तक उम्मीद का जलाएं दिया
सुबह अब भी नज़र नहीं आती।

जब से रस्ते में मिल गया है सच
बेखुदी अब कभी नहीं छाती

अनुजा
30.11.1996

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

वक्‍़त का ये कुसूर है यारों
मुझको भी अब सुरूर है यारों ।

मैं ही उस पर फिदा नहीं हूं बस
वो भी कुछ कुछ ज़रूर है यारों।

यूं ख़ताओं को माफ़ उसने किया
तख्‍़त पर बेक़ुसूर है यारों ।

उसका बिस्‍तर बिछाओ आंख लगे
वो बहुत थक के चूर है यारों ।

मैं समझता था कट गया है सफ़र
घर मगर अब भी दूर है यारों ।

जबकि शीशों पे बाल आए हैं
तुमको किस पर ग़ुरूर है यारों।

जानता है समझ रहा है सब
वो नशे में ज़रूर है यारों

अनुजा
30.11.1996

सोमवार, 14 नवंबर 2011

अशआर

मुहाफि़ज़ आ रहे हैं, रास्‍ते वीरान हो जाएं
कुछ इस्‍तक़बाल के उनके सरो-सामान हो जाएं।।

वो आशिक़ हैं हमारे ही औ पर्दा भी हमीं से है
ये हसरत है कि अब घर बे दर-ओ-दीवार हो जाएँ।।




दोस्‍तों से यही बस गिला रह गया
अजनबी सा कोई आश्‍ना रह गया।।

सब बिछुड़ते गए ख्‍़वाहिशों की तरह
राह में हमसफर रास्‍ता रह गया।।




अनुजा

ग़ज़ल

मेरी मंजि़ल कहां है या मुझे इतना बता दे तू
नहीं तो राह में बिखरे हुए पत्‍थर हटा दे तू।।

भटकती फिर रही है जि़न्‍दगी यूं ग़म के सहरा में
कहीं पर एक छोटा सा कोई दरिया दिखा दे तू।।

तुझे मालूम है कि थक गए हैं पांव अब मेरे
मेरे पांवों को रूकने के लिए अब सायबां दे तू।।

मुझे इस जि़न्‍दगी की तल्खियों ने तोड़ डाला है
कभी अपना कहे कोई तो ऐसा राज़दां दे तू।।

बड़ी आसान लगती हैं उसे ये गल्तियां मेरी
मुझे अब दे सुकूं ऐसा कोई तो आशियां दे तू।।

अनुजा
12.09.96

ग़ज़ल

ये माना हार रहे हैं तुम्‍हारी मौजों से
समन्‍दरों के भी तूफां मगर संभाले हैं ।।

ये तीरगी का समां देर तक रूकेगा नहीं
कहीं वो दूर पे छुपकर खड़े उजाले हैं ।।

तुम्‍हारे तेज थपेड़ों से बुझ सकेगा नहीं
बड़ी उम्‍मीद से रौशन दिया ये बाले हैं।।

लगी है जि़द कि यहीं आशियां बनाएंगे
वो रोक पाएंगे क्‍या जो बड़े जियाले हैं।।

चलेंगे तर्ज़ पे अपनी ज़माना आयेगा
हज़ार जख्‍़म इसी इक सुकूं ने पाले हैं।।

उफक पे डूब रहा आफताब, जाने दो
कि माहताब तो हर रंग में निराले हैं।।

ये ठीक है कि अकेले हैं इस सफर में हम
समय ने दूर बहुत काफिले निकाले हैं।।

जो गिर गया है बटोही तो हार मत जानो
कि उठ के चलने की हिम्‍मत अभी संभाले है।।

अनुजा
09.09.96