रविवार, 6 अक्तूबर 2013

चालीस के पार....



जि़न्दगी
जब पार कर जाती है 40 वसन्त....

एक सही सलामत
आजीविका का
नहीं होता कोर्इ स्थायी आधार.....
ना ही
कोर्इ सहारा....

ढूंढे नहीं मिलता कुछ भी....
हर
दरवाज़े से बैरंग लिफ़ाफ़े सा
लौटा लाती है उम्र....

साथी
मर जाता है
अपने साथ आने से पहले ही
शहर की किसी दौड़ती सड़क के सन्नाटे में....
दफ़्न रहता है लावारिस सा
शहर के किसी ख़ामोश मुर्दाघर में......

गुलाबों की पंखुरियां झर जाती हैं
नीम के कसैले पत्तों सी
कड़वी हो जाती है समझ....
चिता की लपटों के बीच
झुलस जाता है हर सपना...
सुलगते हुए एहसास
तब्दील हो जाते हैं ठंडी राख में.....
लहराती हुर्इ मुटिठयां
झूल जाती हैं मृत बांह सी...

सपने तब कितने अलग हो जाते हैं सारी दुनिया से....

नर्इ कोंपलों
और
पोढ़ी पत्तियों का कोर्इ मेल नहीं होता....!

04.03.05
अनुजा

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