सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

कुछ पुराने पन्‍नों से.....

गुलज़ार से पहली मुलाकात हुई थी लखनउ के होटल ताज में, जगजीत सिंह भी साथ में थे। सोच के गयी थी कि उन दोनों का इंटरव्‍यू करेंगे। प्रतिभा और मैं दोनों साथ थे। उसी दिन मुझे पता चला था कि गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं। नवीन जी ने बताया था। हम उन दिनों स्‍वतंत्र भारत में थे। ये 1996-97 का दौर था। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम नि:शब्‍द हो जाते हैं जब उनसे मिलते हैं जो हमारी सोच का एक हिस्‍सा हो जाते हैं। ऐसे ही लोग नायक हो जाते हैं। उस वक्‍त पत्रकार, लेखक और व्‍यक्ति को अलग करना मुश्किल होता है। वो वक्‍त वही वक्‍त था जब हम उनसे एक भी शब्‍द नहीं पूछ सके, बस खामोशी को बहते बोलते सुनते रहे तमाम सवालों के शोर में....।
लौटकर कुछ लिखने की को‍शिश की पर बस इतना ही बन पड़ा था और कहीं किसी पुरानी डायरी के पन्‍नों में दबा पड़ा था ये पन्‍ना...।


मैंने भी तो यार जुलाहे......
और ऐसा लग रहा था कि सामने ही वो जुलाहा, जिसने शब्‍दों के ताने बाने से बुना है पूरा एक दर्शन......जीवन की एक पूरी सोच....विचारों का एक ग्रंथ....।
सफेद बुर्राक क़लफ किया कुर्ता पायजामा, सफेद बाल, हल्‍की सी बढ़ी हुई विशिष्‍ट पहचान वाली दाढ़ी और पांवों में सफेद चप्‍पल....और इसके साथ ही चमकती-उजली मुसकान.....।
ये गुलज़ार थे... हमारे शहर में...हमारे बीच....एक स्‍वप्‍न के साकार होने की प्रक्रिया.....।
बेइरादा किया गया काम अनिश्चितता की स्थिति से जब उबार लेता है और हम वो पा जाते हैं जिसके बारे में हमने सोचा भी नहीं होता है तो बस जो होता है..... वही हुआ......, कहीं छलक पड़े आंसू...कहीं रच बस गयी खामोशी....।
क्‍या बोलें॥क्‍या पूछें..., न कोई सवाल ....न कोई जवाब....।
बस बोलती है खामोशी....।
अनुजा

3 टिप्‍पणियां:

  1. क्या याद दिला दिया आपने अनुजा जी. मेरा वो उन्हें देखकर रोते जाना, वो गुलज़ार साब का मुझे चुप करना, अपने हाथों से पानी पिलाना और मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मेरी सिसकियों को थामने की कोशिश करना. कुछ कहाँ कह पाए थे हम...गुलज़ार साब ऊपर देखकर कुछ बुदबुदाये थे. वो ऊपरवाले का शुकराना कर रहे थे और हम उनका...टूटी सिसकियाँ, आंसुओं का वो सैलाब वो पहली मुलाकात सब वैसा का वैसा दर्ज है...मैंने इस बारे में कभी कुछ नहीं लिखा. सबसे हसीं लम्हे हम दिल के सबसे भीतरी कोने में छुपा जो देते हैं. उसके बाद मैं उनसे जितनी भी बार मिली हूँ अनु दी हर बार पहली मुलाकात की खुशबू शामिल रहती है...मुझे वो अब तक मिस कटियार ही कहते हैं और मैं उन्हें दुरुस्त नहीं करती लौट जाती हूँ वक़्त के उसी लम्हे में जिसकी सिर्फ आप ही गवाह थीं...

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  2. क्या याद दिला दिया आपने अनुजा जी. मेरा वो उन्हें देखकर रोते जाना, वो गुलज़ार साब का मुझे चुप करना, अपने हाथों से पानी पिलाना और मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मेरी सिसकियों को थामने की कोशिश करना. कुछ कहाँ कह पाए थे हम...गुलज़ार साब ऊपर देखकर कुछ बुदबुदाये थे. वो ऊपरवाले का शुकराना कर रहे थे और हम उनका...टूटी सिसकियाँ, आंसुओं का वो सैलाब वो पहली मुलाकात सब वैसा का वैसा दर्ज है...मैंने इस बारे में कभी कुछ नहीं लिखा. सबसे हसीं लम्हे हम दिल के सबसे भीतरी कोने में छुपा जो देते हैं. उसके बाद मैं उनसे जितनी भी बार मिली हूँ अनु दी हर बार पहली मुलाकात की खुशबू शामिल रहती है...मुझे वो अब तक मिस कटियार ही कहते हैं और मैं उन्हें दुरुस्त नहीं करती लौट जाती हूँ वक़्त के उसी लम्हे में जिसकी सिर्फ आप ही गवाह थीं...

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  3. हां, वो पूरा वक्‍त आज भी मुझे वैसे ही याद है। तुम्‍हें रोते देखकर मैं कुछ हतप्रभ थी और कुछ स्‍वाभाविक। मुझे याद आया था कि नीरज से मिलकर ऐसे ही मैं चुप हो गयी थी और समझ में नहीं आया था कि क्‍या पूछूं और क्‍या बात करूं ।
    मुझे जगजीत सिंह से वो मुलाकात भी याद है। मुझे और मेरे साथ किसी एक और विजि़टर को कौरिया के उन्‍होंने तस्‍वीर के लिए पोज़ दिया। बेशक उनके लिए शायद वह एक प्रोफेशनल होगा पर मुझे आज भी उस तस्‍वीर की तलाश है और जब से जगजीत सिंह गए हैं मैं शिद्दत से उन सारे मौसमों को वापस पाने को बेचैन हूं जो खाली चले गए,अब कभी नहीं लौटेंगे पर उनकी यादें आज भी जे़हन में वैसी ही बिखरी पड़ी हैं बिना धूल गर्द के।

    क्‍या तुमको वो शाम याद है जब हमने बेगम हज़रत महल पार्क में बाहर से खड़े हो कर जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनी थीं और उन्‍होंने किसी दर्शक की ओर देखकर शरारत से गाया था- माशूक का बुढ़ापा लज्‍़ज़त दिला रहा है

    अंगूर का मज़ा अब किशमिश में आ रहा है...

    मुझे यकीन है कि तुम वह भी भूली नहीं होगी।

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