सोमवार, 8 अगस्त 2011

वापस लौटने की एक कोशिश.............

आज तीन सालों की मेहनत से बनाए गए, संवारे और संभाले गए साथियों में से एक ने रिज़ाइन कर दिया........।

ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्‍यों गया, क्‍या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।

ये सवाल इसका है कि हमारी आस्‍थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्‍थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्‍थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्‍हें बनाया क्‍यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्‍मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्‍यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............

आजकल जिस संस्‍था में हूं उसके कांसेप्‍ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्‍यवस्‍था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............


प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्‍तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्‍तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रे‍त में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्‍तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।

मेरी दुनिया........।

मुझे खुद पर आश्‍चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्‍या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्‍तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।

मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्‍पना नहीं की थी......... । फिर ये क्‍या और क्‍यों हो रहा है........
क्‍या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........

अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्‍ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्‍स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........

वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा

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