रविवार, 28 अगस्त 2011

लौटा लाओ.......

माथे पर
तुम्‍हारा एक चुंबन...
अश्‍वत्‍थामा के रिसते ज़ख्‍़म पर
मरहम...
फिक्र के दो शब्‍द...
अपना ध्‍यान रखो.....
सुकून का एक झोंका.....
बाहों का एक आश्रय....
गले से लगी हुई
आत्‍मीयता.....
एक बार
फिर लौटा लाओ
वो कुछ
बीते पल .......!
अनुजा
02.08.11

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर.......पर.......

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर दरवाज़ा खोला........
तो देखा 8:30 बज गए थे। बारिश का एक तेज रेला बहकर जा चुका था। अपनी भोर के सा‍थियों के स्‍वागत में जो पकवान रखे थे , पानी के तेज बहाव के साथ बहकर जा चुके थे। चिडि़यां ज़मीन पर उन्‍हें तलाश रही थीं। गिलहरी पौधे की एक पतली सी टहनी पर कलाबाजि़यां कर रही थी। सारी की सारी आपस में बतिया रही थीं......बहस जारी थी- 'सुबह हो गयी.... अभी तक उठी नहीं।' एक ने कहा।
'दरवाज़ा तो खुल गया है'- दूसरी बोली।
'उसका कुछ भरोसा नहीं, दरवाज़ा खोल के सो जाती है।' तीसरी ने अपनी राय ज़ाहिर की। ये राय भी ज़रूर उसकी आंखों देखी होगी।
'इतनी देर हो गयी....भूख लगी है', गिलहरी टहनी की फुनगी को कुतरते हुए टुप से बोली।
'क्‍या करें अब'॥, किसी अगली ने चिंता व्‍यक्‍त की।
'चलो, मिलकर शोर मचाएं'....।
' आज अभी तक बाहर भी नहीं दिखाई दी......' किसी ने कहा।
तबियत तो ठीक होगी ना...।
'ओहो, धैर्य रखो न, आ जाएगी.......' गिलहरी सर्र से नीचे उतर आई।

कान में कुछ सुर सुर तो हो रहा था मेरे। गैस के पास खड़ी चाय बना रही थी कि ये खुसुर पुसर मेरे कान में पड़ी। सुबह पानी के कोप से साफ हो चुकी छत को देख चुकी थी। अचानक मुड़कर खिड़की के बाहर देखा तो पूरा का पूरा कुनबा मौजूद था इंतज़ार में अपनी अठखेलियों और प्रपंच के साथ।
अक्‍लमंद को इशारा काफी है।
दाने ले जाकर छत पर बिखेर दिए। और बस सब की सब एक साथ झुंड में चिट् चुट् कलरव करने लगीं। आपस की छेड़छाड़ शुरू हो गयी।
गिल्‍लू तो अभी भी वहीं पर है और खाने में मग्‍न है अपनी पतली टहनी के झूले पर झूलते हुए। उसकी सभी सहेलियां बीच बीच में आकर उसे छेड़ती हैं और नीचे आने को कहती हैं पर अब तक वह अपनी निश्चिंत सी अपने झूले पर झूल रही है।
ये मेरे घर की हर सुबह का दृश्‍य है। और दिनों की अपेक्षा रविवार को यह ज्‍यादा दिखाई देता है क्‍यों‍कि रविवार को मैं देर तक सोती हूं। ये कहानी 14 अगस्‍त की है। आज़ादी के एक दिन पहले की कहानी है......।
सचमुच पंछी, नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्‍हें रोके......।
ऐसा लगता है घर के आंगन से उड़कर यहां मेरा साथ निभाने आ गयी हैं और रोज सुबह हाजिरी लगाने आ जाती और मेरी ये गिटपिट उनसे लगभग रोज़ ही चलती है.......।
..........और वो रोज़ ही अपनी टी वी टी टुट् टुट् में मुझसे मेरा हाल लेती हैं......।
हम एक दूसरे की भाषा समझते हैं..... जानते हैं और बतियाते हैं........।
आंगन की ये अनोखी आत्‍मीय साथी अब धीरे धीरे सिमटती जा रही है........ कम होती जा रही है.......।
ऐसे तो क्‍या बचेगा शुभ कल......।
मैं तो बोलूंगी कि अपनी इस हर सुबह की साथिन को बचा सको तो ही बचेगा 'शुभ कल'।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
मां ने जितने ज़ेवर थे, सब पहन लिये थे
बांध लिये थे....
छोटी मुझसे.....छ: सालों की
दूध पिला के, खूब खिलाके, एक साथ लिया था
मैंने अपनी एक ''भमीरी'' और इक ''लाटू''
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गांव छोड़कर भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे......

आग धुएं और चीख़ पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुएं में भाग रहे थे
हाथ्‍ा किसी आंधी की आंते फाड़ रहे थे
आंखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
मां ने दौड़ते दौड़ते खू़न की क़ै कर दी थी!
जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन....
लेकिन मैंने सरहद के सन्‍नाटों के सहराओं में अक्‍सर देखा है
एक ''भमीरी'' अब भी नाचा करती है
और इक '' लाटू'' अब भी घूमा करता है......!"

गुलज़ार

गुलज़ार..वो पहली मुलाक़ात....वो यादें....

आज गुलज़ार का जन्‍मदिन है.....। हर तरफ उनके प्रशंसकों की बधाइयां हैं।
मुझे याद आ रही है उनसे वो पहली मुलाक़ात......।
ये स्‍वतंत्र भारत के दिन थे....।
तारीख़ आज याद नहीं, पर पुखराज उन दिनों बड़ी चर्चा में थी और मैंनें एक प्रति खरीदकर अपनी एक दोस्‍त के जन्‍मदिन पर उसे भेंट की थी।
गुलज़ार से मैं मिलने जा रही हूं, और साथ्‍ा में जगजीत सिंह भी आए हैं, ये सुनकर उसने एक आह सी भरी थी- हाय रे, हम भी मिलते।
चलो, मैंने कहा। पर वे जाने को तो राज़ी नहीं हुईं, हां मुझे पुखराज पकड़ाई-' इस पर जगजीत सिंह और गुलज़ार के ऑटोग्राफ ले आना।'
मैं और प्रतिभा एक साथ गए थे.....मुझे याद है.....।
पुखराज पर उनके ऑटोग्राफ लिए.....
किसकी है ये तुम्‍हारी... उन्‍होंने पूछा था...
नहीं, मेरी दोस्‍त की है..... मैंने उसे उसके जन्‍मदिन पर दी थी....
पर मुझे नहीं मिली उसके बाद....स्‍टॉक में ख़त्‍म हो गयी थी....।
मैंने सबको दी और मुझे ही नहीं मिली....मैंने शिकायत सी की थी....।
नया प्रिंट आने वाला है..... उन्‍होंने आश्‍वासन दिया।
आज मेरे पास पुखराज है मगर उस कवर पेज के साथ नहीं जो मुझे बेहद पसंद है... किताब और क़लम का....
मुझे शायद सब चाहिए होता है...... पर सब तो हमेशा, हर किसी को नहीं मिलता न...।
जितना मिल जाए उतना ही हमारा हिस्‍सा होता है...।

गुलज़ार नाराज़ थे मीडिया से.....हम उनकी रचनाधर्मिता के प्रशंसकों की तरह उनसे मिलने गए थे.....।
झक सफेद कपड़े पहने वो बैठे थे कमरे में। हमने आने की अनुमति मांगी तो बड़ी सहज और धीमी आवाज़ में उन्‍होंने हमें बुला लिया। हमें उन्‍हें बताना पड़ा कि हम मीडिया से नहीं हैं।
गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं...... यह नवीन जी ने बताया था मुझे....। नवीन जोशी उन दिनों हमारे संपादक थे।
हम गुलज़ार से मिलने उनके कमरे में गए....प्रतिभा तो उनके आशीर्वाद का हाथ सर पर आते ही भाव विभोर हो रो पड़ी और मेरी समझ में नहीं आया कि उनसे क्‍या सवाल पूछूं या क्‍या बात करूं.....
आप कैसे लिखते हैं.... बस इतना पूछ के रह गयी......।
जो किसी न किसी रूप में आपको हमेशा अभिभूत करता रहा हो...... उसको अपने सामने पाकर आप ख़ुद कैसे गूंगे से हो जाते हैं........... और यह भी एक दिलचस्‍प अनुभव है.......संवेदनशील लोगों की प्रतिक्रियाओं का......।
जो मुझे छू गया :
गुलज़ार से मिलना जैसे साक्षात् कविता से मिलना है.... वे न सिर्फ एक खूबसूरत प्रभावशाली गीतकार, कलाकार, निर्देशक और लेखक हैं बल्कि उनसे मिलकर कोई भी यक़ीन के साथ्‍ा यह कह सकता है कि वे एक बेहतर इंसान भी हैं।
उनकी फिल्‍में अगर देखी जाएं ज्‍यादातर.....आंधी हो या किताब..... या म‍ाचिस या बरसों पहले आयी वो एक खूबसूरत फिल्‍म- खुश्‍बू ।
मिट्टी की महक हर फिल्‍म में बरकरार रही। मुझे आज तक नहीं भूली वो फिल्‍म।
खुश्‍बू के नायक थे जीतेन्‍द्र। लेकिन उनका गेटअप ऐसा था कि बहुत दिनों तक मैं यह समझती रही कि गुलज़ार ही अपनी फिल्‍म खुश्‍बू के हीरो थे। युवा गुलज़ार का झक सफेद कुर्ता पायजामा और चश्‍मे का गेटअप खुश्‍बू के नायक ने क्‍या अपनाया कि वह बिल्‍कुल गुलज़ार का लुक सा लगा।
मैंने काफी बचपन में वह फिल्‍म देखी थी और मैं बहुत दिनों तक यह नहीं जानती थी कि गुलज़ार हीरो नहीं कवि और गीतकार हैं....। खुश्‍बू की खुश्‍बू आज भी मेरे मन को महकाती रहती है। किनारा, लेकिन और रूदाली भी ऐसी ही फिल्‍में हैं जो मैं कभी भी नहीं भूल सकती...।
किनारा के भी एक दृश्‍य में जीतेन्‍द्र ने गुलज़ार का सा चश्‍मा लगाकर उनका लुक लिया था.... और उनका वह गीत... नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा....मेरी आवाज़ ही पहचान है....गर याद रहे.....। सचमुच अपनी पूरी ताज़गी के साथ्‍ा यह गीत एक कालजयी गीत है।
आज भी आंख मूंदकर बिना कुछ सोचे समझे गुलज़ार की फिल्‍म देखने बैठ जाती हूं.....। कितनी बार भी देख लूं कोई भी फिल्‍म.... आप कभी बोर नहीं हो सकते.... सामयिकता और ताज़गी कभी गुलज़ार की फिल्‍मों से कभी ख़त्‍म नहीं होती.....।
गुलज़ार की सभी रचनाएं कालजयी और सादगी से भरपूर हैं... यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी...।
गुलज़ार की नज्‍़में हों, गीत हों या फिल्‍में........ दर्द इतना ज्‍़यादा है कि चाहे कितना भी रिसे ख़त्‍म नहीं होता।
उन्‍होंने कहा ही है-
ये शायर भी अजीब चीज़ है
कितना भी कहे ख़त्‍म ही नहीं होता..... कुछ ऐसी ही कैफियत है उन पंक्तियों की......, शब्‍द इस वक्‍त मुझे ठीक से याद नहीं हैं.....।
ये हैं गुलज़ार....भले ही याद न रहें मगर एहसास रहते हैं।

अनुजा

सोमवार, 15 अगस्त 2011

हरसिंगार

हर सुबह देखती हूँ
ज़मीन पर बिखरे हरसिंगार........

और
सोचती हूं
सुख इतना क्षणिक क्‍यों होता है
……?
खूबसूरत सुबहों का ये बिछोह
……!
और कोई नहीं,

कि रूक कर देखे या पूछे
……
अपनी शाख से बिछुड़कर कैसा लगता है तुम्‍हें
.....?
अद्भुत
है……
लाल सूरज और सफेद चांद का ये साथ
…….
उगते सूरज ढलते चांद का ये खुशनुमा साथ
मिलना और बिछुड़ना एक साथ
नए सफ़र के लिए…..
मगर ये है……!यही है हरसिंगार……!
रात भर जो रहता है किसी शाख का मेहमान…..!
और
हर सुबह बिछुड़ जाता है….!
हर नन्‍हा फूल अकेला…..
अपने आप में, सबके साथ होकर भी……
आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं की तरह……!
मत उदास हो….!
लौट जाओ जीवन की हरारत में..... हमारी रात की सुबह अभी नहीं हुई है ....!हमें तो चलना है पिछली सुबह की याद के साथ......!तुम्‍हारी आंच मुझ तक आती है .....और तुम्हारी बारिश भी भिगोती है मुझे....!मगर हम सब अपनी जगह पर जमे बोनसाई हैं....अपनी दहलीजों में क़ैद.....!
हमारे सिर्फ शब्‍द पहुंचते हैं कानों तक .....
और शायद कभी ख़ामोशी भी......!आंखों तक उंगलियां नहीं जा पातीं.......!
कभी ख़ामोशी को बहते और बोलते हुए सुनो....!
वहां है कुछ...तुम्‍हारे लिए.....
जीवन की तरह.......
बरगद की तरह........
ओस की ठंडक की तरह ....
अपनेपन की तरह......
लौट जाओ जीवन की गर्माहट में.......
सब हैं वहां तुम्‍हारे लिए.....
जिनकी ज़रूरत है तुमको.....!
अनुजा

ओ आकाश......

तुम्‍हारे लिए
सहेजे मैंने हर बार.....
कुछ चुने हुए शब्‍द
मन की दुखती हुई तहों से निकालकर
रूई के गालों से.......
तुम्‍हें हर बार याद किया
अपने अकेलेपन......
और
दुख की सरसराहटों के बीच
स्‍त्री मुक्ति के हर संघर्ष से परे
तुमको देखा सिर्फ प्रेम के लिए
प्रेम......
जिससे उपजती है करूणा......
पर उसी करूणा ने
बांध दिया मेरा मन
फिर एक बार तुम्‍हारे साथ.......
और
जैसा कि तुमने हमेशा किया
रौंद दिया अपने संवेदनशून्‍य कदमों से........
मेरे प्रेम को.......
मेरी करूणा को.......
अब भी गूंज रही है
मेरे दुख में तुम्‍हारी उल्‍लास से भरी हुई हंसी
जिसमें कहीं आहट भी नहीं है कदमों के तले
चरमराते सूखे पत्‍तों से मेरे प्रेम की......
जिसमें कहीं नहीं वो कुछ भी
जो था.......
जो धड़कने लगा था.....
बहने लगा था......
बसने लगा था.......
मैं फिर हूं श्‍मशान में......
चिता की लपटों के बीच.......!

मैं फिर कह रही हूं
ओ आकाश!
क्षमा करो मुझे
मेरे प्रेम के लिए.......!

अनुजा


रविवार, 14 अगस्त 2011

चांद पुखराज का रात पश्‍मीने की

इक सबब मरने का, इक तलब जीने की
चांद पुखराज का रात पश्मीने की।

आज चांद बहुत सुन्‍दर है। पूरे आकाश में अकेला घूमता फिर रहा है...। सितारों की तो झलक तक नहीं है। बादल हालांकि बरस चुके हैं मगर फिर भी ढीठ से आसमान को घेरे हैं।
अभी कुछ देर पहले नमिता भाभी की रातरानी की महक से गुज़री हूं और अब तक सराबोर हूं।
पूरी छत पर चांदनी और उसके बीच में बह बहकर आती रात रानी की महक का आभास....।
ये केवल लेख का नशा नहीं हो सकता........ पक्‍का कहीं आस पास रातरानी इतरा रही होगी........।
बाहर छत पर बहुत सुन्‍दर है। बादलों ने आवारा चांद को फिर अपने आगोश में ले लिया है और उसे घेरे घेरे आगे बढ़ते जा रहे हैं ढीठ से.......। चांद चुपचाप उनके लम्‍स को महसूस कर रहा है...... और अपनी ठंडक को उस भीगेपन से सराबोर करके बिखराता चला जा रहा है।
बादलों से घिरी चांदनी रात का यह खामोश ठंडा सन्‍नाटा.......और भोर की धुंधली चमक में बहती हवा की ठंडक का ताज़ा झोंका..... दोनों ही मुझे हमेशा बांधते हैं.......मगर दोनों ही मुझसे बहुत दूर हैं.........।
अज्ञेय के उपन्‍यास नदी के द्वीप में भुवन का एक डायलॉग मेरे भीतर हमेशा बहता है, जो वह चांदनी को निहारती हुई रेखा से कहता है- 'पगली, चांदनी है। सब न पी सकोगी।'

सुबह सवा आठ बजे दफ्तर की बस को पकड़ने और कैंटीन के खाने से बचने के लिए सुबह सुबह खाना बनाने की जिम्‍मेदारी ने मेरी ये भोर और रात की ठंड को फांकने का सुख छीन लिया है।
जाते हुए हर रोज़ में कोशिश होती है कि अपनी इस खुशी को, इस तसल्‍ली को वापस ले लूं....... छीन लूं वक्‍त से...... पर मशीन में फंसे धागे सी घड़ी की सुइयों में फंसे समय वाली इस जि़न्‍दगी से उसे वापस लाना मुश्किल ही होता जा रहा है......।
नींद मुसलसल पीछे ही पड़ी रहती है और टिप् टिप् बूंदों सा मन में कुछ बहता रहता है सारे दिन........
शायद नींद का कोई अनछुआ सा झोंका.....जो चांद की नरमाई और ठंडी हवाओं की सिहरन से महरूम कर देता है।

15.08.11
आज भी सचमुच चांद बाहर अपने पूरे शबाब पर है....।
चांदनी रात और ठंडी हवा...। बाहर गयी थी नल बंद करने कि चांद ने बाहं पकड़ ली और सरगोशी की- अन्‍दर क्‍या कर रही हो, बाहर आओ न....।
आज ये चांद तन्‍हा है पर यही चांद कभी कभी तन्‍हाई का अकेला साथी होता है।
मेरे कमरे के बाहर की छत काफी बड़ी है। छत पर एक बगिया भी है....। पिछले दिनों जबसे माली बदला है छत और बगिया सुन्‍दर लगने लगी है।
जब से मैं अकेली रहती हूं, यह चांद ही है जो साथ देता रहा है.....। चाहे एकाग्रता का अभ्‍यास करना हो या एकान्‍त से बाहर आना हो, सिर्फ चांद ही अपना साथी रहा है।
दिल्‍ली शहर के बाद इस छोटे से शहर में रहने का यह तो फायदा हुआ ही है। कम से कम चांद सितारों से थोड़ी दोस्‍ती निभ जाती है। बड़े शहरों से तो ये रात और इस रात की छुअन दोनों ही महरूम हैं।

अनुजा

शनिवार, 13 अगस्त 2011

वापस लौटने की कोशिश.........;

इन दिनों बहुत जोर शोर से अपनी सारी ताकत से इस कोशिश में हूं कि वापस लौट जाऊं! नौकरी बदलना इसका एक तरीका हो सकता है पर अपनी दुनिया में वापस लौटना एक दूसरा रास्‍ता।
अपनी किताबें, अपनी कहानियां, अपनी कविताएं,अपने सपने, अपना प्रेम......सब कुछ की ओर वापस लौटना चाहती हूं...........अब उसके साथ जीना चाहती हूं..........।गए कई बरसों से इस सबसे मुहं फेर लिया था...........डर लगता था हर कदम बढ़ाते हुए........ न जाने कब, कौन सी गाज गिर पड़े, न जाने , किस क्रूर सच से सामना हो जाए.........ऐसा सच जिसे झेल पाने की ताकत शायद हमारे भीतर न हो।
गए कई बरस अपनी सारी आत्मिक, मानसिक और भावनात्‍मक ताकत को जैसे परखने के बरस थे......... । सिलसिला आज भी थमा नहीं है........ बस उसका रूप शायद थोड़ा बदल गया है........।
पहले प्रतिभा......।
प्रतिभा से मिलकर एकबारगी हतप्रभ सी रह गयी हूं...........। हालांकि उसकी क़लम की तेज़ी कहीं मुझे वापस खींच कर ला रही है.........। उसके खुद लिख-लिख जाने ने मुझे झिंझोड़ दिया है......। मुझे मेरी रिक्‍तता का एहसास करा दिया है.......। मैंने गए कई बरसों में क्‍या खो दिया........और किस चाह में.......मुझे लगातार पिछले बहुत लंबे समय से एहसास हो रहा है..........। भाषा, भाव, विचार........ सबने मुझसे दामन बचा लिया है.........।
प्रतिभा से मिलकर मुझे एक सदमा सा लगा........मेरी तमाम फिक्रों में उसकी फिक्र भी बड़ी शिद्दत से जुड़ गयी........। जी चाहता है, उसे कहीं ऐसी जगह छुपा दूं जिससे दुख का एक भी क़तरा उसके पास से न गुजर सके......... पर ऐसा तो होता नहीं है ना........। जीवन पाया है तो सब कुछ जीना पड़ता है.........अपना भी और दूसरों का भी...........।
........... लो अंधेरा उतर आया। कमरे की सब खिडकियां अभी तक बंद थीं। बाजार जाना था। सब कुछ भूल गयी......, सब छूट गया........। प्‍लान से केवल मैनेजरी हो सकती है........., जिया नहीं जा सकता.........। प्रतिभा सुन ले ना तो हंसेगी..........- आप भी बस ऐसी ही हैं........और बस उसका वही सदाबहार वाक्‍य- यह भी सही है। मैं कहूंगी - ठीक है भई,जो अच्‍छा लगे वो करो।
पर सारी दुनिया तो हमारी तरह नहीं सोचती ना। अब रात में 11 बजे बाज़ार जाने का मन करे तो इस अनजाने, अकेले, छोटे से सोते हुए शहर में किसी दुकान के खुले होने की उम्‍मीद तो नहीं होगी ना। और यह तय है कि अब जाया नहीं जा सकता।
प्रतिभा के ब्‍लॉग में रिल्‍के और मरीना के कुछ पत्रों का अनुवाद पढ़ा, इधर बहुत लंबे समय के बाद उससे मुलाकात भी हुई।
बहुत दिन बाद रिल्‍के को भी पढ़ा........। सुबह-सुबह अन्‍दर कमरे में जाकर अल्‍मारी पर नजर दौड़ाई- रिल्‍के लायी हूं या घर में ही छोड़ आयी।
नहीं, लायी हूं। किसी वक्‍त फुरसत में पढूंगी। फुरसत.... जो शायद इन तीन दिनों की छुट्टी के बाद मुश्किल से मिलेगी। नज़र का नंबर कितने दिन से आगे चला गया है, टालती रहती हूं डॉक्‍टर के पास जाने को। डॉक्‍टर के तो नाम से ही अब उलझन होने लगती है। पर जाना तो पड़ेगा अगर पढ़ना है तो......... ये नंबर कंप्‍यूटर पर तो ठीक काम करता है पर पढ़ने में खासी दिक्‍कत देता है।
तीन किताबें लाइन में हैं और 'अहा जि़न्‍दगी' के दो अंक साथ साथ चल रहे हैं। किताबें कुछ पन्‍नों के बाद बंद हो जाती हैं और फिर जाने कितने दिनों बाद उन्‍हें मनाने का मौका मिलता है।
नींद ऐसी कि मुसलसल पीछे पड़ी रहती है। ज़रा सा मौका मिला नहीं कि आंखों को धर दबोचा। ज़रा भी रहम की फितरत नहीं इसकी....।
आजकल दिन चमकीले, धुंधले और रूमानी हो गए हैं.......... पर मन है कि जागता ही नहीं........., कितनी कोशिश करूं, वो रंग लौटकर ही नहीं आता..........।
आईने पर गर्द जम गयी है.........। न जाने कब साफ होगी............।
जी चाहता है किसी भीतर से बाहर तक झिंझोड़ देने वाले एक लम्‍स को......... भीतर तक महमहा देने वाली एक खुश्‍बू को............ और शायद कहीं बहुत शिद्दत से बेपरवाह और बेफिक्र वक्‍त को..............शायद प्रेम को...........।
मगर सब तरफ खामोश है सब कुछ.............. उदास सा है सब कुछ..........।
ये उदासी जाती क्‍यों नहीं........
दरअसल तलाश उसकी है जो है ही नहीं यहां कहीं किसी जगह........ किसी लम्‍हे में....... या किसी मोड़ पर............ बस सब तरफ असीम शान्ति है पर यह शान्ति उजास से भरी क्‍यों नहीं है......... इसमें उदासी सी क्‍यों है........... ।
न अगले पल का पता है........... न अगले मौसम का...............। बस यूं ही चलते जाना है.............बेपरवाह..... थके हुए कदमों के साथ..........।
कभी कभी शक होता है क्‍या सचमुच मैं लौट सकूंगी ...............?
अनुजा

बुधवार, 10 अगस्त 2011

बारिश, सावन, मेंहदी और.....और.....;

बारिश, सावन, मेंहदी, गुडि़या......, सब एक साथ याद आता है। याद आते हैं वो दिन, वो काले बादलों से भरा आसमान और उस पर उड़ती हुई बगुलों की पांत ' वी' के शेप में...। घनघोर बारिश के बाद भीगी हुई छत पर भीगे बादलों और भीगी हवा से तन-मन को सहलाते हुए काले बैकग्राउन्‍ड पर सफेद बगुलों की उस पांत को देखना.....और तब तक देखते रहना......जब तक वो दिखना बंद न हो जाएं.............., आज भी उसी रोमांच और सिहरन से भर देता है जो उस वक्‍त ध्‍यानमग्‍न सा कर देता था........।
सावन गए कई बरसों में कई बार आया और गया है। कभी सूखा कभी भीगा.........। कभी इस शहर, कभी उस शहर.......बस अपनी छत की उस निश्चिन्‍तता से दूर.........., बेफिक्री से परे........., एक कोलाहल और अशान्ति के बीच सावन हर बरस आता और जाता रहा है।
पिछले तीन बरसों से उसे झांसी में पकड़ने और संभालने की कोशिश में रही हूं........।
झांसी में जब पहली बार आयी थी-2008 में तो सितम्‍बर का महीना था वह, सावन तब तक था या भादों आ चुका था, आज याद नहीं.........पर बारिश का भीगापन तब भी था हवाओं में और इसी भीगेपन ने मुझे शायद यहां बांध लिया था। झांसी की आकर्षक, रोमांचक ऐतिहासि‍कता के अतिरिक्‍त यहां के पत्‍थर, यहां की हरियाली और बारिश ने बांध लिया था मुझे। बेतवा का तट और फूली सरसों के खेतों ने पैरों में बेडि़यां डाल दी थीं........, अभी भी शायद कहीं मैं उस मोह से मुक्‍त नहीं हूं।सच यह है कि इस सबसे घिरते हुए भी मुझे गुडि़यों के इस त्‍यौहार की इतनी शिद्दत से याद नहीं आयी जितनी इस बरस आयी....।
ताज़ी हरी मेंहदी से भरे हमारे हाथ पांवों को बांधकर हमें चारपाई पर बिठा देती थीं हमारी बुआ......। नई फ्राक, नया हेयर बैंड या नए रिबन से हमारे बालों को सजा देती थीं वो। कमरे से रसोई तक जाने के लिए आंगन से गुज़रना पड़ता था पर झमाझम बरसे पानी में हमारे लिए थाली में मम्‍मी के हाथ का स्‍वाद लेकर उसकी गर्माहट को संभाले पीठ पर बूंदों की थाप संभाले वो कमरे में हमारे लिए खाना लातीं और हम तीनों बहनें आराम से उनके हाथों से खाने का मज़ा लेते।ये वो दिन होता था जब न तो पढ़ाने के लिए मास्‍टर आते थे, न डांट-मार या सजा का भय होता था।
दर्द से कराहते घुटनों पर पुराने कपड़ों के टुकड़ों को लपेटकर दादी हमारे लिए सुन्‍दर गुडि़यां बनाती थीं। उन गुडि़यों को डलिया में काले, उबाले और कल्‍हारे चनों के साथ हम चौराहे पर डालने जाते और मोहल्‍ले के भाई, चाचा उन गुडि़यों को पीटते थे।
गुडि़यों को पीटने का यह राज़ मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हमारे घरों में इसे गुडियों का त्‍यौहार कहते थे जबकि बाकी पूरी दुनिया में इसे नागपंचमी के नाम से मनाया जाता है।
बस में वापस लौटते हुए हमारे उत्‍तर प्रदेश के रहने वाले मेरे एक सहयोगी मित्र मधुबन ने इस बरस मुझे याद दिलाया - 'अरे यार, आज हम लोगों के यहां गुडि़यों का त्‍यौहार है' तब मुझे याद आया। बस से उनके स्‍टॉप पर उतरते हुए मैंने एक धौल जमाई उन्‍हें- 'लै, हमने तो आज गुड्डे को पीट दिया। मन गई हमारी तो गुडियां।' और वे मेरी ठिठोली पर मुस्‍कराते और झेंपते हुए चले गए।
सावन के इस सुरीले और भीगे से महीने की उन रौनकों की अब बस यादें ही रह गयी हैं.......लोग भी चले गए.....गुडि़यां भी चली गयीं और वक्‍त भी....।
सावन अब एक नए रंग और सौन्दर्य में है और अनोखी त़ृप्ति के साथ। बुन्देलखण् के इस हिस्से में मैं इस बार इतनी बरखा देख रही हूं........मन मचलकर गा उठता है.....बरखा रानी जरा जम के बरसो.......................।

  • अनुजा

सोमवार, 8 अगस्त 2011

वापस लौटने की एक कोशिश.............

आज तीन सालों की मेहनत से बनाए गए, संवारे और संभाले गए साथियों में से एक ने रिज़ाइन कर दिया........।

ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्‍यों गया, क्‍या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।

ये सवाल इसका है कि हमारी आस्‍थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्‍थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्‍थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्‍हें बनाया क्‍यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्‍मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्‍यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............

आजकल जिस संस्‍था में हूं उसके कांसेप्‍ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्‍यवस्‍था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............


प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्‍तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्‍तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रे‍त में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्‍तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।

मेरी दुनिया........।

मुझे खुद पर आश्‍चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्‍या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्‍तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।

मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्‍पना नहीं की थी......... । फिर ये क्‍या और क्‍यों हो रहा है........
क्‍या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........

अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्‍ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्‍स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........

वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा

रविवार, 7 अगस्त 2011

दूसरी पाती.........

आज फिर लौटने की कोशिश है वापस....
2007 में यह ब्‍लाग शुरू किया था इस सपने के साथ कि यह एक मंच बनेगा जहां स्त्रियों पर बात हो सकेगी।स्त्रियों का मंच होगा, स्त्रियों की बातों का, उनकी संवेदनाओं का, सपनों और आसमानी पंखों का मंच होगा।
यह वह जगह होगी जहां वो बात कर सकेंगी अपनी, दुनिया की, सौन्‍दर्य की, प्रेम की, दुख की, सुख की, सपनों की, आहत मन की, और भी न जाने क्‍या क्‍या.......। वो सब जिसे कहने के लिए कोई और जगह नहीं है वो कहने के लिए एक जगह होगी।
यह केवल स्त्रियों की दुनिया नहीं है, यहां वो सब आ सकते हैं जो अपनी बात करना चाहते हैं, संवेदनाओं की बात करना चाहते हैं, प्रेम की बात करना चाहते हैं, बंधन और मुक्ति की, उड़ान और थकन की, क्रान्ति और शान्ति की बात करना चाहते हैं।

पर सब कुछ बदल गया। गए तीन बरसों में बंद हो गया यह रास्‍ता और बदल गयी ये दुनिया........।
ब्‍लाग की दुनिया बदल गयी और शायद मेरी भी......।
मेरा वक्‍त चुरा लिया एक नई उम्‍मीद ने..........।

और ब्‍लाग की दुनिया में सब अकेले होकर सबके बीच में आए, सबसे सब बांटा और सबके साथी बन गए......।
सबके अपने अपने मंच बन गए.........।

प्रिंट की दुनिया में जगह कम हुई,बाज़ार ने घेर ली रचनाकारों, क्रान्तिकारों, लेखकों, पत्रकारों की जगह और वे सब सिमट आए इस दुनिया में..............।

अच्‍छा है..........।
मुझसे भी छूट गया यह। मुझे जीने के लिए एक जिंदा ज़मीन मिल गयी थी.................।
मैं आ गयी ज़मीन पर क्रान्ति की एक नई उम्‍मीद का छोर पकड़कर.......।
दुनिया थी सामुदायिक रेडियो की..........।
बात थी गांव देहात की............।
उस आम आदमी की....... जो बड़े बड़े अखबारों और चैनलों से गायब होता जा रहा है। जिसके दर्द, जिसकी दुनिया और जिसके राग के लिए कोई जगह नहीं है इस चमकती धमकती दुनिया में..............।

मैं खु श थी इस नई शुरूआत से..............।
कहां मैं ब्‍लाग की बात सोच रही थी, कहां उनके बीच में जाने और सीधे उनसे दर्द, दुख, अभाव, राग, द्वेष, सुख और कला सबसे सीधे बात हो सकेगी।

कुछ हद तक यह सपना सच भी हुआ.........।
जुनून को एक शक्‍ल मिली।
वो, जो साथ नहीं आते थे............साथ आने लगे............। सपनों को पंख लगने लगे...........सुकून की एक सांस मैंने भी भरी................ जीवन का एक बहुत पुराना सपना सच हुआ............। ऐसे ही तो काम करना चाहा था...........।
कभी मन भटकता भी था कि सारा कुछ तो वैसा नहीं हो रहा जैसा सोचा था..................।

भीतर से मां सा कोई हाथ मन को थपकी देता था...............-'कोई बात नहीं, दुनिया एक दिन में नहीं बनी तो तुम कैसे सोचती हो कि एक दिन में सब बदल जाएगा। सब कुछ धीरे-धीरे होगा...........।'
'एकला चलो रे' का जो आह्वान मुझे हमेशा चलने को प्रेरित करता था, उसी ने हाथ पकड़कर मुझे फिर संबंल दिया..........आगे चलने का..........। विपरीत परिस्‍थतियों में.............गहन निराशा से भरे लोगों को आशा के उजास में ले आने का संघर्ष करते और नई आंखों में सपनों के दीपक जलाने की कोशिश के साथ अब तक चलती आरही हूं............।
मगर जैसे एक व्‍यक्ति की गद्दारी पूरे आंदोलन को, सारी क्रान्ति को असफल कर देती है, सारे लड़ाकुओं को फांसी की राह पर ले आती है.............कुछ वैसा ही हो रहा है यहां भी आज..............।

बावजूद इसके कि इस सारे सपने को जीने और इसके साथ आगे बढ़ने के सुख का एहसास ही अनोखा है............कई बार लगता है कि गलत प्रयास, गलत जगह किया गया, गलत लोगों के साथ किया गया, गलत उद्देश्‍य से किया गया।
सच यह है कि क्रान्ति का सपना सिर्फ मेरा था.........। उन लोगों का नहीं जिन्‍होंने इसे शुरू किया........... जो इसमें साथ आए.................। उनके उद्देश्‍य अलग थे और सपने भी.................।

लिहाज़ा मैं चाह कर भी इसे उस तरह से आगे नहीं ले जा सकती, जैसे इसको जाना चाहिए और जैसे यह एक अपना असर छोड़ सकती है।
क्रान्ति भूखे आदमी को तो अपने साथ ला सकती है मगर हारे हुए आदमी की निराशा के साथ आगे कभी नहीं बढ़ सकती है...........यही क्रान्ति का सच भी है और शायद दुर्भाग्‍य भी.............।

शायद इसीलिए मेरा क्रान्ति का यह सपना चोटिल हो रहा है।
शायद नौकरी और क्रान्ति कभी एक साथ नहीं हो सकते।
यह पहल जो दूसरे की थी...........इसके साथ मैं अपना सपना कैसे जी सकती हूं.............।
यह शायद क्रान्ति का सही रास्‍ता नहीं था...........।

क्रान्ति कभी दूसरे के कंधों पर बैठकर नहीं की जाती..........।
क्रान्ति की तो अपनी धुन होती, अपनी राह और अपनी दुनिया............. ।
उसके अपने तरीके होते हैं........... और अपने नियम..........।
उसमें लोग स्‍वेच्‍छा से जुड़ते हैं............... और जानते हैं कि इस रास्‍ते पर मृत्‍यु से भी कहीं मुलाकात हो सकती है...........।
मगर यहां तो कुछ भी नहीं है..............।
यहां तो बस अपेक्षाएं हैं............... और वो भी सिर्फ अपने लिए.............।
यहां की हवा अब जहरीली और खुदगर्ज होने लगी है...........। यहां सब तरफ षडयंत्रों का भय भर गया है..........।
लगता है सब कुछ डूब रहा है और बचाने के लिए पतवार लेने का अधिकार भी हमारा नहीं...........।
यह क्रान्ति हमारी नहीं................ क्‍योंकि इसके नियम दूसरे बना रहे हैं और निर्णय भी दूसरों के हाथ में हैं.............।

यह हमारी दुनिया नहीं.............।
कोशिश है कि इस षडयंत्रकारी दुनिया से मैं वापस लौट सकूं...............।

शायद किसी दूसरे मोड़ पर वह क्रान्ति मेरा बाट जोहती मिल जाए...........।
या शायद यह दौर ही न हो क्रान्ति का..............।
शायद मैं इस दौर से कुछ ज्‍यादा ही उम्‍मीद लगा बैठी हूं........... ।
शायद मैं कहीं गलत हूं..........गलत अपेक्षाएं और गलत कोशिश कर रही हूं............ ।
क्‍योंकि आज मुझे फिर तलाश है एक नौकरी की............... ।
एक ऐसी नौकरी............जिसमें आजीविका तो हो मगर क्रान्ति का कोई सपना न हो............।
और मैं अपने पैरों को ज़मीन पर रखा हुआ महसूस करूं............. और मन को सुखी.............।
यहां कोई उम्‍मीद न हो...............।

सच तो यह है कि रचनात्‍मकता की भी शायद एक सीमा होती है............।
क्‍योंकि घूम फिर कर सब फिर वहीं आते हैं..............बल्कि आ रहे हैं जहां से शुरूआत हुई थी.............दूसरों की नकल कर रहे हैं नई जगहों पर और उन्‍हें नया प्रयोग बता कर पेश कर रहे हैं और अपनी रचनात्‍मकता पर गर्व कर रहे हैं...........अपनी पीठ ठोंक रहे हैं.........।
इसमें मेरी क्रान्ति कहां है..............
अनुजा